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________________ [श्रीपाल चरित्र पञ्चा परिच्छेद तवा ता देवदेव्यश्च जिनशासन वत्सलाः । सती मवनमञ्जूषां शीलसद्रत्नभूषिताम् ॥१०॥ दिव्याभरणवस्त्रायः पूजयन्तिस्म सादरम् । नत्वा स्तुत्वा स्वभावेन स्व स्व स्थानं ययुस्सुखम् ॥१०८॥ अन्वयार्थ-(तदा) धवलसेठ को सद्बुद्धि आने पर (ता) वे जिनशासनवत्सलाः) जिन शासन के भक्त (देव) देव (च) और (देव्यः) देवियां (शीलसद्रत्नभूषिताम् ) शील रूपी उत्तम रत्न से सुसनिक सतीम् माती (बदामजवाय) बनाएनषा की (सादरम् ) आदर पूर्वक (दिव्याभरणवस्त्राद्य :) देवोपनीत सुन्दर आभूषण, वस्त्र, माला रत्न, मणि, मुक्ता आदि से (पूजयन्ति स्म) पूजा को पुनः (नत्वा) नमस्कार कर, (स्तुत्वा) स्तुति करके (स्वभावेन) स्वभाव से (सुखम् ) सुख पूर्वक (स्व स्व) अपने-अपने (स्थानम )स्थान को (ययुः) चले गये । भावायं—परनारी रति महा भयङ्कर दुःख की खान है, यह धवलराज को प्रत्यक्ष हो गया । मार-पोट से प्राकुल-व्याकुल हो छटपटा गया । अन्तत: महासतो के चरणों की शरण में जाना पडा । क्षमा याचना की । अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप किया। सती मदनमजूषा का उपसर्ग निवारण कर, तथा उसे पतिमिलन का आश्वासन दे, एवं धवल को उसकी सेवा में नियुक्त कर वे देव-देवियाँ प्रसन्न हुए। ठोक ही है अयोग्य कार्य को सिद्धि होने पर भी प्राणियों को सन्तोष होता है तो फिर सुयोग्य धर्म कार्य को सिद्धि होने मे आनन्द एवं संतोष क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा । अपने कर्तव्य को पूर्णता कर ने जिन शासन रक्षक देव-देवियां अपने-अपने स्थान पर जाने को उद्यत हुयीं। उसी समय उन्होंने महासती मदनमब्जषा को अभ्यर्थना की । शोलरूपो उतम रत्न धारिणी उसको दिव्य बस्त्र लङ्कारों से सुसज्जित किया । अत्यन्त विनय और पादर से रत्न, मणि, चीनपट, माला मुक्ता, हार प्रादि से पूजा की, उच्चस्थान-आसन पर पधराया । अनेक शुभवाक्यों से स्तुति की अर्थात् प्रशंसा को । बार-बार नमस्कार किया । हर्षातिरेक से गद्गद् हो उसका यशोगान करती आनन्द से यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चली गई । अब मदनमञ्जूषा उन जिनशासन वत्सल देव-देवियों से रक्षित, सेवित और पूजित हो निराकुल हुयी ।।१०७, १०८।। सापि श्रीमज्जिनाधीशपादपद्वयेरता । स्मरन्ती मानसे तस्थौ पोते श्रीपरमेष्टिनः ।।१०६।। अन्ययार्थ—(सा) वह मदनमषा (अपि) भी (श्रीमज्जिनाधीशपादपद्मद्वयेरता) श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणकमलों में लोन (श्री परमेष्ठिन:) पञ्च परमेष्ठी का (मानसे) मन में (स्मरन्ती) स्मरण करतो हुयो (पोते) जहाज में (तस्थी) स्थित हुओ। भावार्थ -- अब मदनमञ्जूषा पति मिलन को प्राशा में श्रीजिनेन्द्र प्रभु के चरणाब्जय की भ्रमरी हो गई । निरन्तर श्रीपञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करती हुई यान-पात्र में रहने लगो ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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