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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
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संसार में सभी नारियों का पति ही एकमात्र देव होता है उसके अतिरिक्त धर्म- पञ्चपरमेष्ठी ही शरण हैं अन्य नहीं । धर्म तो सर्वदा ही रक्षक है किन्तु पतिवियुक्ता नारी को विशेष रूप से अर्हत-सिद्ध साधु ही शरण हैं । अतः वह एकाग्रता से सतत मन में महामन्त्र का ध्यान करने लगी | जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति, स्तुति, नुति ही उसका नित्य नैमित्तिक कार्य था । तत्रचिन्तन और धर्म कथा करते हुए समय बीतने लगा ।। १०६ ।।
अथ श्रेष्ठी दिनैः कश्चित्समं पोतैविधेवशात् । उल्लंध्य सागरं प्रायत् पत्तनं बलवर्त्तनम् ।। ११०॥
अन्वयार्थ -- ( अथ) मदनमञ्जूषा का सेवक होने पर ( श्रेष्ठी) घवलसेट ( विधेः) भाग्य के ( वशात् ) वश से (पोले समम ) जहाजों के साथ ( कैश्चित् ) कुछ ( दिनैः) दिनों के बाद ( सागरम् ) समुद्र को ( उलङ्घ्य ) लांघकर ( दलवर्त्तनम ) दलवर्तन नामक ( पत्तनम् ) द्वीप को (प्राय) प्राप्त किया ।
भावार्थ — धवल सेट अधर्म से परास्त हुआ । धर्म की शरण आया और अपने जहाजों को लेकर सुख से आगे चल पडा। कुछ ही दिनों में सागर को पार कर लिया। भाग्यवश दलपत्तन रत्नद्वीप में आ पहुँचा। यहीं सागर पार कर श्रीपाल भी आया था । पाठकों को स्म रण होगा कि यहां के राजा की कन्या गुणमाला का विवाह भी श्रीपाल के साथ हो गया और वह राजा ने कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त कर दिया था। अब ये महाशय-धवल जी भी आ पहुचे | देखिये अब क्या होता है । क्योंकि दोनों का मिलन तो होना ही है ।। ११०३ ॥
रत्नादिकं समादाय प्राभृतं स्वजनैर्वृतिः ।
गत्वा राजालयं श्रेष्ठी वृत्त्याग्रं तं ननाम च ॥ १११ ॥
अन्वयार्थ धवलसेठ (स्वजनंवृतः ) अपने साथियों से सहित ( श्रेष्ठी ) धवलसेठ ( रत्नादिकम) हीरा, पन्नादि को ( प्राभृतम् ) भेंट में ( समादाय ) लेकर ( राजालयम् ) राज दरवार में (गत्वा) जाकर (च) और ( अ ) आगे राजा के सामने (धृत्वा ) घरकर (तम ) उसे (नाम) नमस्कार किया ।
भावार्थ -- घवलसेठ तो निश्चित सा था कि श्रीपाल परलोक चला गया होगा । अतः वह निर्भय हो राजा से भेंट करने चला । "रिक्त हस्तं न पश्येत राजानं देवता गुरु" उक्ति के अनुसार उसने प्रत्यन्त सुन्दर बहुमूल्य रत्नादि सुवर्ण थाल में भरे और राजदरबार में जाकर राजा के सम्मुख जगमगाता थाल रख दिया। उस अपूर्व प्राभुत को प्रदान कर उसने राजा को बारम्बार नमन किया । ठीक ही अपने कार्य की सिद्धि को कौन पुरुष नहीं चाहेगा ? उसे व्यापार करने की अनुज्ञा लेनी थी राजा से फिर भला क्यों न भेंट करता ? करता ही ।। १११ ॥
भूपतिः प्राभृतं वीक्ष्य कृत्वा संभाषणं पुनः ।
तस्मै श्रीपालहस्तेन स ताम्बूलमदापयत् ।। ११२ ।।