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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ ३०७ I चारों ओर हाय-हाय मच गयी । जहाज डगमगाने लगे। चारों ओर ऊपर-नीचे जहाज डगमगाने लगे । सर्वत्र हा हा कार मच गया। मरे चले, बचाओं का स्वर गूंज उठा। कौन किसकी सुने ? न कोई कहने वाला न सुनने वाला । ऐसा प्रतीत होता था मानों उस धवल पापी का घोर पाप अन्धकार बन कर छा गया है उसी पर नहीं उसके साथियों के शिर पर भी मानों कालच घूमने लगा | इधर यह आकस्मिक दुर्घटना और उधर महादेवी पद्मावती के घूसे लात | सेठ की दुर्दशा वा दयनीय अवस्था थी । कहाँ जाय ? कोई शरण नहीं ? कोई सहाई नहीं । क्षेत्रपाल महाराज भी अपना गदा लेकर आगये और लगे उस दुष्ट प्रन्यायी सेठ की भद्रा उतारने। लातों से धमाधम कुचल डाला बेचारे दुर्बुद्धि को । वि.सी देव ने उसके दोनों हा नीट की जिसमे किनारों को रोक भी न सके। किसी ने शिर नीचे कर उलटे पाँव लटका कर ताडना दी। महादेवी ज्वालामालिनी क्यों चुप रहतीं। उन्होंने तो और भी गजब ढाह दिया। चारों ओर जहाज में आग उत्पन्न करदी कौन कहाँ जाय ? "इधर कुआ उधर खाँई " जहाज जलने लगे कूदें तो सागर की उत्ताल तरङ्ग | आचार्य कहते हैं कि साधु-सज्जन-सत्पुरुषों पर आई आपत्ति सबको प्राणापहारिणी होती है। क्योंकि धर्मात्मा का धर्मका सङ्कट है । धर्म और धर्मात्मा एक सिक्के के दो पहलू हैं । इस प्रकार धर्म संरक्षक उन शासन देवी-देवताओं ने तथा व्यन्तरादि देवताओं ने जिनसे सहायता की मदनमञ्जूषा ने प्रार्थना को थी उन सभी ने उसे ( सेठ को ) यथोचित दण्ड दिया । अन्त में उससे कहा कि यदि तुझे जीवित रहना है तो इस महासती के चरणों में पड़ । इसे प्रसन्न कर | यदि यह क्षमाप्रदान करती है तो तू बच सकता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार कहते हुए उसके मुख पर मल-मूत्रादि अपवित्र पदार्थ क्षेपण किये और क्रोधित हो बोले क्या पुनः इस प्रकार का कुकर्म करोगे ? फिर सतियों के शीलधर्म पर कुदृष्टि डालोगे ? रे रे पापी, नीच प्रथम तू क्या पाप का फल नहीं जानता ? क्या तुझे मतिभ्रम हो गया है ? नरकगामी ! अभी भी कुछ नहीं faगडा है । महासती से प्राणभिक्षा मांग ले । यही एकमात्र जीवन का उपाय है अन्यथा श्रतिशीघ्र तेरा मरण अवश्यम्भावी है। इस महादेवी का प्रसाद - प्रसन्नता ही तुम जीवनदान दिलाने में समर्थ है । इस प्रकार नानाविध कदर्थ हुआ वह पापात्मा भय से कांपने लगा । शिर से पैर तक थर-थरा उठा। हाथ जोड़ शिर नवा कर उस शीलशिरोमणि के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगा "हे देवि तुम मेरी पूज्या माँ हो, निश्चय ही आपका सतीत्व अटल है । मुझ पापी ने श्रापको अनेक प्रकार दुर्गम कष्ट दिये हैं उन सबको क्षमा कीजिये | आप क्षमा मूर्ति हैं क्षमा स्वरूप हैं हे देवि ! मैं अज्ञानी, पापी, लोभो दुव्यर्सनी दीन-हीन आप द्वारा क्षम्य योग्य हूँ । मुझ पर दया करो, कृपा करो, जीवनदान दो, हे मातेश्वरी बचाओं, मैं अधम, नीच पापी बालक हूँ । मेरे सभी अपराधों को क्षमा कर मुझे जीवन भिक्षा प्रदान करो। इस प्रकार नानाविध उस सती साध्वी की स्तुति कर उसे प्रसन्न कर लिया । सत्य ही है, नीतिकारों का कथन है कि बुद्धिविहीन को कुमति पीडित होने पर ही सुमतिरूप से परिणत होती है जैसे को अन्धे पुरुष को उसके ललाट पर मारने पर ही बोध होता है। बिना मस्तक पर ताडना किये उसे अन्त निकट पडी वस्तु का भी भान नहीं होता। यही हाल हुआ इस विषयान्ध का ! विषय लोलुपो चर्म चक्षु रहते हुए भी महाअन्ध हो जाता है । अतः देवी-देवताओं से सम्यक् प्रकार कुट पिट कर इस घवला को सही बुद्धि आई ।।६४ से १०६ ।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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