________________
३०६ 1
[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
तु नहीं जानता यह शोलरत्न अनर्थ है, अमूल्य है, आत्मस्वभाव है, स्वर्ग का देने वाला है, ब्रह्मचर्यनल समान जगत में अन्य कुछ भी सार नहीं है। इस लोक में यश, वैभव सम्मान दानक्षता है पर लोक में सद्गति देने वाला है तथा परम्परा से मुक्ति रमा का सङ्गम कराने वाला है । इस अमूल्य शोल धर्म को मैं कदापि, स्वप्न में भी नहीं त्याग सकती हैं। जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक मेरे शील पर तनिक भी आंच नहीं आ सकती । अधिक कहने से क्या ? मैं किसी भी मूल्य पर अपने शील का त्याग नहीं कर सकती। इस प्रकार इत उत्तर दे कर उस महासती ने सुदृढ प्रतिज्ञा भी घोषित को। मैं या तो अपने पतिदेव का दर्शन कर अथवा जिनेन्द्रोक्त प्रायिकावत धारणकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्य प्रकार नहीं । निश्चय ही जिनदोक्षा दुःख मंहारिणी और सुखकारिणी है । स्त्रीलिङ्गाछेदन की एकमात्र यही कुठार है। प्रस्तु. मैं पाप ताप नाशक दीक्षा ले पाणिपात्र में भोजन करूगी। पुण्य योग से पतिदेव का मिलन हुआ तो ठोक है अन्यथा जिनागम ही शरण है । इस प्रकार दृढ नियम कर शुद्ध मन से एकाग्रचित्त हो पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करने लगी। महामन्त्र णमोकार की अचिन्त्यशक्ति है, धर्मात्मा शोलवतो नारियों का सतीत्व भी उतना ही शक्तिशाली है. दोनों के योग की ताकत का कहना ही क्या है ? ज्योंही वह ध्यानस्थ हुयी कि ध्यान की लयता का तार भूमिप्रदेश से स्वर्गलोक में जा टकराया । तरक्षा शासन देव-देवियों के प्रासन कम्पित हो गये । आसनों के डगमगाते ही उन्होंने अपने अवधिज्ञान लोचन का उपयोग किया और तत्काल ज्ञात कर लिया कि महासती पर घोर संकट आया है। धर्म मर्यादा रक्षणार्थ उसका निवारण करना हमारा कर्तव्य है। क्योंकि "न धर्मों धामकविना" धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रह सकता । अतएब हमें अपराधियों को दण्ड देकर धर्मात्मानों का रक्षण करना ही होगा। वस क्या था स्वर्गीय सुख-वैभव को तिलाजलि देकर उसी समय भूलोक में आ घमके । जिन शासन देवीदेव और व्यन्तरों का जमघट लग गया । आते ही सर्वप्रथम महादेवी
JASTHANI पद्मावती ने उस मूर्ख विषयान्ध धवल की चांदों-थप्पड़ों और लातों से पूजा को । महाकोष से भयङ्कर प्रलयकारी झझा बायु चलायी। चारों पार अन्धकार व्याप्त हो गया। पोर तभ-तोम छा गया । सुचीभेद्य अन्धकार में
roy