________________
श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
तथा तत्स्पर्शमात्रेण पोतास्ते जलधौ जवात् ।
प्रचेलुः परमानन्दं कुर्यन्तस्सज्जना यथा ॥६३।।
अन्वयार्थ -(लथा) उस समय (तत्) श्रीपाल के (स्पर्शमात्रेण) स्पर्श करने से ही (ते) वे (पोता:) जहाज (जलधी) उदधि में (जवात्) वेग से (प्रचेलुः) चल दिये (यथा) जैसे (सज्जनाः) सत्पुरुष (परमानन्दम्) परम आनन्द को (कुर्वन्ता:) करने वाले होते हैं।
भावार्थ-पुण्यशाली श्रीपाल ने अपने कोमल सुदृढ़ कर से स्पर्श करते ही उन अचलयानों का चलायमान कर दिय। । यति सागर को असाल तरङ्गों के साथ क्रीडा करते हुए वे जहाज वेग से चलने लगे । आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। सभी आश्चर्यकारी घटना से चकित तो हुए हो, उनके हर्ष की भी सीमा नहीं रही। सत्य ही है सज्जनों को सङ्गति किस के लिए परमानन्दकारिणी नहीं होती ? अपितु होती है । इसी प्रकार यशस्वी श्रीपाल के सहयोग से धवल सेठ और उसके साथी परमानन्द को प्राप्त हुए ।। ६३।।
अहो पुण्यस्य महात्म्यं महतां केन वर्ण्य ते ।
यत् करस्पर्शमात्रेण दुस्साध्यमपिसिद्धयति ।।६४॥ अन्वयार्थ---(अहो) आश्चर्य है (पुण्यस्य) पुण्य की (माहात्म्यम ) महिमा (केम) किन (महताम) महात्मानों से (वर्ण्यते) वर्णित हो सकती है ? (यत्) जो कि (दुस्साध्यम्) कठिनसाध्य (अपि) भी कार्य (करस्पर्शमात्रेण) हाथ के द्वारा छू ने मात्र से ही सिद्ध हो गया।
भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि पुण्य का महात्म्य अदभुत है। इसकी महिमा महात्मा भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकते साधारण जन की तो बात ही क्या है ? असाध्य भी कार्य साध्य हो जाता है। अभिप्राय है कि हर एक प्राणी को पुण्यार्जन करना चाहिए । पुण्यात्मा के संकट टल जाते हैं । कार्य सरलता से पूर्ण हो जाते हैं ।।६४।।
तरन्ते जलधौ पोता ध्वजवातैश्च रेजिरे ।
श्रीपालस्य यशो लक्ष्मीनन्दना साधना यथा ॥६५॥
अन्वयार्थ—(च) और (जलधौ) समुद्र में (पोता) जहाज (ध्वजव्रातः ध्वजारों के समूहों से युक्त (तरन्ते) तैरती हुयी (रेजिरे) शोभायमान हुयी (यथा; जैसे, मानों (श्रीपालस्य) श्रीपाल का (यशः) यश (लक्ष्मीनन्दनासाधना) लक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली साधना हो।
भावार्थ-..सागर के अगाध जल में जहाज तैरने लगे-चलने लगे। उन पर लगी हयीं अनेकों पताकाएँ पबन झकोरों से फहराने लगीं। ऐसा प्रतीत होता था मानों श्रीपाल का यश लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करने जा रहा है। कुबेर के वैभव की मानो साधना ही कर रहा हो ।।६।।