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- [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद
सम्मान पूर्वक आसनारूड किया । तदनन्तर अपना अभिप्राय प्रकट किया। वह बोला, हे पुरुषोत्तम ! मेरे जहाज समुद्र किनारे पर अकस्मात् कीलित हो गये हैं। अकारण इस घटना से मैं प्रवीर हूँ । कृपया आप मेरे जहाजों को चलाने की कृपा करें। श्रीपाल ने भी विनम्रता से उत्तर दिशा ठीक है "मैं चलाता हूँ ।" इस प्रकार कहकर वह स्नानादिकर, शुद्धवस्त्र धारण कर पूजा सामग्री लेकर श्री जिनालय में गया । अत्यन्त भक्ति से श्री जिनराज की अभिषेक पूर्वक पूजा की। दुष्कर्म विनाशक, सर्व सिद्धि दायक श्री पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार कर, एकाग्रचित्त से स्तुति की, स्मरण-ध्यान किया। पुनः सागरतट पर आया । अटके जहाजों को देखा, पुनः सिद्धों का ध्यान कर नमस्कार किया, स्तुति की और अपने हाथों को "हंकार " शब्द के साथ लगाया । कर स्पर्श होते ही चारों ओर "हूं हूं" शब्द गूंज उठा जहाज चल पड़े | आनन्द की लहर दौड़ पड़ी। जिन-सिद्ध, पूजा, का चमत्कार प्रत्यक्ष साकार हो उठा । वस्तुतः जिनभक्ति में अनन्तशक्ति है । असाध्य कार्य भी क्षणमात्र में इस सिद्धभक्ति से सरलता से सिद्ध हो जाते हैं । सिद्ध परमेष्ठी ही ऐसे हैं नहीं है प्रसिद्ध जिन्हें कुछ भी वे हैं "सिद्ध" । उनका ध्यान करने वाला भी अपने कार्य में सफल ही होता है। कभी भी विफल नहीं हो सकता । जिनभक्ति भी विजय दायिनी है। भक्ति यथार्थ हो तो सर्वत्र 'जय' ही 'जय' प्राप्त होती है | यह श्रीपाल कोटिस्ट ने सर्वत्र प्रत्यक्ष कर दिखाया ।।५६ - ६० - ६१॥
तदातन्नादतश्शीघ्र पोतस्था: क्षुद्रदेवताः ।
नष्टाः श्रीपाल पुण्येन सुपुण्येन इव च ईतयः ॥ ६२ ॥
प्रत्ययार्थ - ( तदा ) श्रीपाल के हाथ से स्पर्श करते हो ( श्रीपाल पुण्येन ) श्रीपाल के दुध से ( पोतस्था:) जहाजों में स्थित रहने वाले (क्षुद्रदेवता: ) दुष्ट देवतागण ( तत् ) उस ( नादतः ) हंकार नाद से (शीघ्रम) शोध हो (लष्टाः ) नष्ट हो गये ( इव) जिस प्रकार ( सुपुण्येन) श्रेष्ठ पुण्य से ( इतयः ) ईति, भोति आदि व्याधियां नष्ट हो जाती हैं ।
भावार्थ - जिन दुष्ट, क्रूर और शुद्ध मिथ्यादृष्टि देवों में जहाजों को कीलित कर रक्खा था । वे सारे दुर्जन श्रीपाल के पुण्य से 'हूंकार' नाद सुनते ही भाग खड़े हुए। ठीक ही है सूर्योदय होते ही क्या अन्धकार टिक सकता है ? सम्यक्त्व के समक्ष मिथ्यात्व का निवास कहाँ ? नहीं रहता 1 आचार्य कहते हैं कि सातिशायी पुण्य जहाँ रहता है वहां ईतियाँ, व्याधियां पवाद नहीं टिकते। ईतियां सात प्रकार की होती हैं। कहा भी है
( अतिवृष्टिरनावृष्टिभूषकाः शलभाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः पडेत इतयः स्मृता
अर्थात् १. अतिवृष्टि (आवश्यकता से अधिक वर्षा होना) २. अनावृष्टिः ( आज श्यकता से कम वर्षा या प्रभाव होना ) ३. मूषका: ( अधिक चूहों से प्लेग आदि रोग फैलना ) 1 ४. शलभा ( टिड्डोदल आना) ५. शुकाः (तोतों द्वारा-बेती का नाज ) ६. प्रत्यासन्नाः ( अकस्मात् उपद्रव हो जाना) ७. राजानः ( राजाओं द्वारा हमला, आदि । ये सात प्रकार की तयां कहलाती हैं। ये पुण्यात्मा जीवों को नहीं सताती हैं ।