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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
१३६] फिर अन्य वस्तुओं की तो बात ही क्या है ! अन्य सब सांसारिक सुख-साधन तो घास-फूस के समान यों हो प्राप्त हो जाते हैं ।।२१।। और भी
धर्म:चिन्तामणिोंके धर्मः कल्पतरुर्महान् । .
धर्मः कामदुहाधेनुधर्मो बन्धूर्जगत्रये ॥२२॥ । अन्वयार्थ (लोके) संसार में (धर्मः) धर्म (चिन्तामणिः) चिन्तामणिरत्न है, (धर्म:) धर्म (महान् ) विशाल (कल्पतरूः) काल्पवृक्ष है (धर्म:) धर्म (कामदुहाधनु:) कामधेनु है (जगत्त्रये) तीनोंलोकों में (धर्म:) धर्म हो (बन्धु) बन्धु-मित्र है, रक्षक है।
भावार्थ-हे पुत्रि ! संसार में धर्म ही चिन्तामणिरत्न है । अर्थात् चिन्तामणिरत्न के समान चिन्तित कार्य की सिद्धि करने वाला है महान् वाल्पवृक्ष के समान वाञ्छित पदार्थों को धर्म स्वयं देता है । कामधेनु के समान यथायोग्य, मनोऽभिलाष पदार्थ देने वाला है । संक्षेप में धर्म उभयलोक की सिद्धि करने वाला है ।।२२॥
धर्मः संसारवाराशौ पोतोऽयं भन्यदेहिनाम् ।
धर्मों माता-पिता मित्रं धर्मों निधिरनुत्तरः ॥२३॥ ।
अन्वयार्थ- (संसारवाराशी) संसार रूपी समुद्र में (अयं) यह (धर्म:) धर्म (पोत:) जहाज है (भव्यदेहिनाम् ) भव्य जीवों को (धर्म:) धर्म (अनुत्तरम् ) अलौकिक (निधिः) निधि है तथा (धर्मः) धर्म ही भव्यों को (माता-पिता मित्रम ) माता, पिता और मिन्न है।
तल्लक्षणं प्रवक्ष्यामि शृण श्रीपाल, भूपते ? ।
भो सुतेः त्वमपिव्यक्त सावधाना शृण ध्र वम् ।।२४॥युग्मम ।। अन्वयार्थ (भूपते श्रीपाल ! ) हे राजन् श्रीपाल ! (तत्) उस धर्म का (लक्षणं) लक्षण (प्रवक्ष्यामि) काहूँगा (त्वं) तुम (शृण ) सुनो (भो सुते ! ) हे पुत्री मदनसुन्दरी ! (त्वमपि) तुम भी (सावधाना) एकाग्रचित्त से (शृण ) सुनो (अहम् ) मैं (प्राचार्य) (व्यक्तं) स्पष्टरूप से उस धर्म के लक्षण को (ध्र वम् ) निश्चय से (प्रवक्ष्यामि) काहूँगा।
भावार्थ -प्राचार्य श्री कहते हैं, संसार सागर में भव्यप्राणियों को धर्म सुदृढ पोतजहाज है। धर्म ही खजाना है। धर्मा ही माता समान रक्षक है । धर्म ही पालनहारा पिता है । संकट-विपत्ति में सहायक सच्चा मित्र धर्म ही है । सांसारिक माता पिता भाई मित्रों के साथ स्वार्थ लगा है। अपने मतलब से प्रीति, रक्षा, सहाय करते हैं। परन्तु धर्म ही एकमात्र निःस्वार्थ सतत रक्षण करने वाला और सदैव साथ ही रहने वाला है । सम्पत्ति-विपत्ति सर्व एक है धर्म की दृष्टि में ।
वह धर्म क्या है ? हे भूपाल ! श्रीपाल ! हे पुनि मैनासुन्दरी ! मैं उस सर्वोपकारी, परमोतम धर्म का लक्षण स्पष्ट हर से कहूँगा । आप दोनों एकाग्रचित्त होकर सुनिये । निश्चय