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________________ १४० ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद से धर्म सर्व रक्षक और पालक है । उसका स्पष्ट-धर्मलक्षण क्या है ? किस प्रकार पालन करना चाहिए सर्व आप को विस्तार से समझाता हूँ आप सावधान होकर सुन ।।२४।। । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तानि धर्म प्राहुगुणाधिपाः । । योऽत्र भध्यान समुद्धृत्य धरत्युच्चैः पदे सुखम् ॥२५॥ अन्वयार्थ-(यो) जो (अत्र) संसार में (भव्यान्) भव्य जीवों को (समुदत्य) निकालकर संसार सागर से पारकर (उच्चैः सुखम् पदे) महानसुखरूप पद-मोक्ष में (धरति) पहुँचाता है उस (सम्यक्त्वज्ञानवृत्तानि) रत्नत्रय को (गुणाधिपाः) गुणों के प्रागार गणधरादि ने (धर्म) धर्म (प्राहु) कहा है। भावार्थ-संसार दुःखसागर है । इसमें सर्वत्र विपदाओं का निवास है । इस दुःख सागर से जो पार कर सके वही धर्म है। वह धर्म 'रत्नत्रय है । अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है, आत्मस्वरूपोपलब्धि है, यही मुक्ति है । यही परम सुख है। इस सुख के पाने पर पुन: दुःख आ ही नहीं सकता है । सर्वोत्तम सुख जो प्राप्त करादे वही धर्म है ।।२।। तत्रादौ पालनीयं हि सम्यक्त्वं भव्यदेहिभिः । . भरि संसारधाराशितारणकक्षमं मतम् ।।२६।। __ अन्वयार्थ – (हि) निश्चय से (तत्र ) उस रत्नत्रय में (आदौ । सर्वप्रथम (भव्यदेहिभिः) भव्यात्माओं द्वारा (सम्यक्त्वम् ) सम्यग्दर्शन (पालनीयम्) पालन करना चाहिए क्योंकि (भूरिसंसारवाराशि) बहुत विशाल संसार सागर से (तारणकक्षमभतम्) पार करने के लिए एकमात्र वही समर्थ कहा है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ही संसार पार उतारने को प्राधार है ।।२६।। अधिष्ठानं यथाशुद्ध प्रासादस्थितिकारणम् । J तथा तपः क्रियाकाण्डं शृगारं दर्शनं प्रभो ! ॥२७॥ अन्वयार्थ -(यथा) जिस प्रकार (प्रासादस्थितिकारणम् ) महल को स्थिति की कारण (अधिष्ठानं) नींव (फाउन्डेशन) है (तथा) उसी प्रकार (प्रभो) हे राजन् (तपः क्रियाकाण्डं. जारम्) तप तथा समस्त क्रियाकाण्डों का शृगार स्वरूप नींब-जड (शुद्धम्) निर्दोष-अतीचार रहित (दर्शनम) सम्यग्दर्शन (मतम् ) माना है ॥२७।। तत्सम्यक्त्वं भवेत्पुत्रि निश्चयश्चेति मानसे । कालेकल्पशनैश्चापि नान्यथा जिनभाषितम् ।।२८।।युग्मम्।। __ अन्वयार्थ-- (पुत्रि) हे पुत्रिके ! (मैंना) (तत्) वह (सम्यक्त्वं ) सम्यग्दर्शन (चेति) ही (शृङ्गार) मुख्य है ऐसा(मानसे) मन में (निश्चय) निश्चय करो क्योंकि (कालेकल्पशतैः)
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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