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________________ धीराल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [ १४१ सैकड़ों कल्पकाल बीतने (चापि) पर भी (जिनभाषितम् ) जिनेन्द्र भगवान का कथन (अन्यथा) अन्यरूप-असत्य (न) नहीं (भवेत्) होता है ।।२।। भावार्थ-मुनिराज ने कहा, हे नप ! श्रीपाल यह सम्यग्दर्शन रत्नत्रय की नींव है। सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान और चारित्र की स्थिति नहीं हो सकती। जिस प्रकार नींव के नहीं डालने पर महल नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का अस्तित्त्व नहीं रह सकता । हे बेटी ! तुम अपने मन में दृढ निश्चय करो कि सम्यग्दर्शन ही मुख्य है । जीवन का शृङ्गार है । रत्नत्रय अमुल्य है और उसमें भी निरति चार सम्यग्दर्शन अर्थात् पूर्वोक्त २५ दोषों से रहित सम्यक्त्व ही प्रधान है। यह जिनेश्वर की वाणी है । सैकडों कल्पकाल बीतने पर भी जिनवाणी कभी भी अन्यथा हो । नहीं सकती । ऐसा तुम अपने मन में रद्ध श्रद्धान करो। और भी कृपासिन्धु मुनिराज कह रहे हैं। पुनस्ते तस्य सद्भेदान् सम्यक्त्वस्य गदाम्यहम् । श्रूयतां वत्स भो पुत्रि सुखकोटिविधायकान् ॥२६।। अन्वयार्थ- (वरस ) हे वत्सल राजन् (भा पुत्र) हे पुत्र पुनः) भोर भी (ते) आपके लिए (तस्य) उस (सम्यक्त्वस्य) सम्यग्दर्शन के (सुखकोटिविधायकान्) करोडों सुखों को प्रदान करने वाले (सद्भदान्) उत्तम-वास्तविक (भेदान्) भेदों को (अहम् ) मैं (गदामि) कहता हूँ। भावार्थ - राजा-रानी (श्रीपाल-मैना) को सम्बोधित करते हुए आकस्मिक वैध स्वरूप मुनीश्वर पुनः कह रहे हैं कि है वात्सल्यमयी पुत्रःपुत्री: इस सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हैं। सभी करोडो सुम्य देने वाले हैं। मैं उन भेदों का निरूपण करता हूँ। आप दोनों ध्यान से सुनिये ।।२६।। देवोर्हन्दोषनिर्मुक्तो धर्मोऽयंदशधास्मृतः । निर्ग्रन्थोऽसौ गुरुश्चेति श्रद्धा सम्यक्त्यमुच्यते ॥३०॥ अन्वयार्थ ----(दोष निर्मुक्तः) अठारहदोष रहित (अर्हन) चारघातिया कर्मों का नाश करने बाले अर्हत भगवान (देवः) देव हैं (दशंधा) उत्तमक्षमादिरूप दश प्रकार का (अयम् ) यह (धर्म:) धर्म (स्मृतः) माननीय है (तथा च) और (निग्रन्थों) बाह्याभ्यन्तर चोबीस प्रकार परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि (असौ) ये हो (गुरुः) गुरु हैं (इति) इस प्रकार (श्रद्धा) अटल विश्वास (सम्यक्त्वम् ) सम्यग्दर्शन (उच्यते) कहा है। भावार्थ-- प्रथम परिच्छेद में वर्णित्त १८ दोषों से रहित, चारघातियाकर्मों के उच्छेदक ४६ गुरणगरणमण्डित अन्ति भगवान ही सत्यार्थ देव हैं, दस प्रकार के वाह्य और चौदह प्रकार के अन्तरङ्गा इस प्रकार चौबीस परिग्रहों से रहित निग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज ही सच्चे गुरु हैं, उत्तम क्षम, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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