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________________ और सावधान ढंग से होता है। शीघ्र और अधिक साहित्य प्रकाशन की भूख यहाँ नहीं प्रतीत होती । "संतोष का फल मीठा होता है ।" यह कहावत यथार्थ है शुद्धि के ध्यान रखने से इसके विषय और अर्थ का स्पष्टीकरण पूर्णतः हो सकेगा । वर्तमान युगीन मुनि निन्दकों का यह दर्पण है । मुनियों का अविनय करने का कटुफल किस प्रकार मानव को सताता है, प्राणघातक होता है इसके श्रध्यंता को प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा। साधु व साधुसंघ निन्दा भवभवान्तर में जीव को दुःखी बनाती है । इन बेचारे रुपये पर धर्म और प्रात्मसुख को बलि चढाने वालों को सन्मार्ग दिखाने वाला दीपक है। गुरु ही विपत्ति में शरण होत हैं ।। आपत्ति के मंडराते मेघों को गुरुवाणीरूपी पवन क्षण भर में तितरवितर कर देती है। आये हुए संकटों को सहन करने की क्षमता का सागर गुरु ही प्रदान करते हैं। वीतराग दिगम्बर साधु निरोहवृत्ति से सर्वोपकारी होते हैं। जो उदरपूर्ति के प्रलोभनों में पड़ गुरुभक्ति, विनय, श्रद्धा और दानादि से दूर हट रहे हैं, उन्हें यह शास्त्र उज्ज्वल प्रकाश और प्रेरणा प्रदान करेगा । गुरुभक्ति की श्रृङ्खला में जोड़ देगा, आगम की राहों पर ला देगा, आर्षमार्ग पर खड़ा करेगा, सही दिशा में चलाकर अन्तिम लक्ष्य मुक्ति तक पहुँचने का पौष्टिकशुद्ध पाथेय प्रदान करेगा ऐसा मेरा विश्वास है । मिथ्यादर्शनों का किला सत्य की तोपों से चूर-चूर हो जाता है यह है इसका आद्योपान्त आलोडन करें, अध्ययन करें। नारी के गौरव गान का सुरीला नाद भरा है इसमें । शील, संयम, त्यागमूर्ति नारी किस प्रकार स्वयं दोषवत तिल-तिल जलकर पर को प्रकाशित करती है, यह निस्वार्थ भाव नारी का इसमें चित्रित है । वह समयानुसार, विलासिनी, सन्यासिनी, वीराङ्गना धर्मध्वजा बनकर जोवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रीडा कर अन्त में आत्मसाधना कर परमात्मस्वरूप बन जाती है यह शिक्षा प्राप्त करना है तो इसे पढ़े बिना न रहें। मेरा विश्वास है कि संसार के बीहड़, कंटीले दुर्गम, तमसाच्छन्न राहों को पार करने का पराक्रम अवश्य ही इससे प्राप्त होगा । पराधीन जीवन मरण तुल्य है । स्वाभिमानी विपत्तियों की दल-दल में फँसकर भी स्वाभिमान रक्षण में सन्नद्ध रहता है। अपने स्वाधीन व्यक्ति से बुराईयाँ टकरा कर चली जाती हैं अचल से पवन झोकों की भाँति । श्रमं जीवन की ज्योति है । धर्मात्मा जीवन नया के सेवदिया है। धर्म और धर्मात्मा में वात्सल्य है साधना की प्रथम सीढी । मुक्तिरमा के प्रासाद के आरोहण का प्रथम चरण । अतः पाठकगण भक्ति रुचि और अनुराग से पढ़ और सीखें | इस ग्रन्थ की टीका करने में संवस्थ १०५ क्षुल्लिका श्री जयप्रभाजी का सहयोग प्रशंसनीय है। सातवें व आठवें परिच्छेद का अनुवाद पूर्णतः इनका ही है । अन्यत्र भी यत्र-तत्र सहयोग करती रहीं । अतः उन्हें मेरा आशीर्वाद है कि वो जिनवाणी की परमभक्ता हो श्रापपरम्परा का वर्द्धन करें। "क्षु० १०५ श्री विजयप्रभाजी ने प्रेस कापी करने में यथायोग्य सहायता दी है उन्हें भी हमारा आशीर्वाद है अपने सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करती रहे । दि. जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति ने इसके प्रकाशन का भार स्वीकार कर आर्षपरम्परा के संवर्द्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । सम्पादक महोदय ने अपने पारिवारिक कार्यों में उलझे रह कर भी ज्ञानवर्द्धन, श्रात्मशोधक इस कार्य में अमूल्य समय अर्पण कर अपनी अटल VITI
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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