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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद]
[ ४१५ भावार्थ इस समय वह युद्ध एक के लिये महा आनन्दकारी होकर भी दूसरे के लिये अति अशुभकारी था । आचार्य कहते हैं कि संसार को यह विचित्र चेष्टा विद्वानों के लिये बोधि रूप यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में कारण है । वीरदमन की दयनीय स्थिति को देखकर धोपाल महाराज का हृदय दया और बिनय से भर गया। वीरदमन के म्लानमख को देखकर
स दयाल श्रीपाल ने शीघ्र ही उन्हें बन्धन से मुक्त कर दिया और कहने लगा कि आप हमारे लिये पिता के समान पूज्य हो । हे गुणों के मन्दिर और पिता के समान अजेय ! आपके लिये मैं पुत्र के समान हूँ । इस प्रकार वीरदमन चाचा को नमस्कार कर, उसने अपनी श्रेष्ठ विनयगोलता का परिचय दिया ।। ५५ से ५७।।
मया बाल्येन तेऽनिष्टं यत्कृतं तत्क्षमस्व च । अतः परं पिता त्वं मे पुत्रोऽहं ते न संशयः ।।५।। लात्वा सप्ताङ्ग राज्य त्वं प्रभुर्भधमहीतले । सेवकोऽहं भविष्यामि तवोच्चस्सर्वकर्मकृत ॥५६।। क्षमस्व त्वं प्रभो यच्य मया धक्के विरूपकम् ।
विषादं मुञ्च भो देव मूढबालक कर्मणा ॥६॥
अन्वयार्थ (मयावाल्येन) मुझ बालक के द्वारा (तेऽनिष्टं यत.) आपके प्रति जो अनिष्ट व्यवहार (वृतं) किया गया है (तत क्षमस्व) उसे क्षमा करें। (अतः) इसलिये (सप्ताङ्ग राज्य लात्वा) सप्ताङ्ग राज्य लेकर (महीतले) पृथ्वी पर(त्वं प्रभुः भव) तुम राजा होकर रहो (वं मे पिता तम मेरे पिता हो (प्रहं पत्रोते मैं तम्हारा पत्र इसमें ( न संशयः) संशय नहीं है (प्रह) मैं (सर्वकर्मकृत) सभी कार्यों को करने वाला (तव) तुम्हारा (उच्चैः) श्रेष्ठ (सेवको भविष्यामि) सेवक होकर रहूँगा । (प्रभो !) हे प्रभु ! (मया यच्च विरूपकम् ) मेरे द्वारा जो भी अनुचित कार्य (चक्र) किया गया है उसे (त्वं) तुम (क्षमस्व) क्षमा करो (भो देव) हे देव (मुढबालककर्मणा) अशानी बालक के कार्य से हुए (विषादं मुञ्च) विषाद को छोड़ो।
भावार्थ-विनय से जिसका चित्त अति द्रवित है ऐसा श्रेष्ठ गुणों का प्राकर-खान, वह श्रीपाल, चाचा बीरदमन के प्रति, कहने लगा हे प्रभो ! मुझ बालक ने आपके प्रति जो अनिष्ट व्यवहार किया है उसे क्षमा करें । तुम मेरे पूज्य पिता हो मैं तुम्हारा पुत्र है इसमें सन्देह नहीं है। तुम सप्ताङ्ग राज्य को लेकर राजा होकर रहो मैं सभी कार्यों को करने वाला श्रेष्ट सेवक होकर इस पृथ्वी तल पर रहूँगा। हे प्रभो ! मैंने जो कुछ अनुचित कार्य किया है उसे क्षमा करो। हे देव ! मुझ बालक के कार्य से उत्पन्न विषाद को छोड़ो ॥५८ से ६०।।
यतः सन्तः प्रकुर्वन्ति क्षमा सर्वत्र सर्वथा । चन्दनो घृष्टमानः किं सौगन्ध्यं त्यजति प्रभो ॥६॥