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श्रोपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद]
एवं धर्मार्थ कामोरूमोक्षार्थाश्चतुरस्सदा ।
साधयन्तिस्म भव्योधाः पदार्थान जिनर्मिणाः ॥४३॥ अन्वयाथ-(यत्र) जहाँ (नार्यो) स्त्रियाँ (जिनेन्द्राणाम् ) जिनेन्द्र भगवान् के (धर्मकर्मणि) धर्मकार्यों में (तत्परा:) संलग्न सावधान थी (सारशृगार संदोहा) उत्तम वस्त्रालकारों के समूहों से सुसज्जित (कुलदीपिकाः) कुल को समुज्ज्वल-प्रकाशित करने वाले (सुपुत्राः) श्रेष्ठ पुत्रों से सहित थो (एबं) इस प्रकार धर्म कर्मरत (भन्योषा:) भव्य जन समुदाय (उम्) विशाल (धर्मार्थ काम) धर्म, अर्थ, काम (च) और (मोक्ष) मुक्ति (चतुर:) चारों (पदार्थान्) पुरुषार्थों को (सदा) हमेशा (साधयन्तिस्म) सिद्ध करते थे ।
भावार्थ-उस नगरी में नारियाँ सदैव धर्मकार्यों में लगी रहती थी। अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् की पूजा सामग्री प्रादि तैयार करने में ही उनका समय व्यतीत होता था । यही नहीं उनके पुत्र भी धर्मार्थ कार्यों से सम्पादन योग साज सज्जा से अपने को सजाते थे। भोग विलास के नहीं । अर्थात् मुख्य उद्देश्य जिनपूजन का रहता था। प्रथम धर्म पुरुपार्थ की सिद्धि का प्रयत्न करते थे । इस प्रकार चारों पुरुषार्थों को वे भव्यात्मा समान रूप से सिद्ध करते थे। ।।४२-४३।।
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तत्रपूर्या प्रजापालो राजा सप्ताङ्ग राज्यभाक् ।
चतुरङ्ग बलोपेतः प्रजापालन तत्परः ॥४४॥ अन्वयार्थ (तत्र) वहां (पूर्याम् ) उज्जयनी नगरी में (सप्ताङ्ग) सात अङ्गयुत (राज्यभा) राज्य का भोक्ता (चतुरङ्ग बलोपेतः) चार प्रकार बलों से सहित (प्रजापालन तत्परः) प्रजा का उचित पालन करने में तत्परः (प्रजापाल:) प्रजापाल नाम बाला (राजा) नृपति था ।
भावार्थ—उस उज्जयनी नगरी का राजा प्रजापाल हुआ। उसके राज्य के सप्त अङ्ग ये (इनका वर्णन प्रथम परिच्छेद में पा चुका है।) चतुरन चार प्रकार का बल हाथी धोड़े रथ और पयादे इनसे सम्पन्न था तथा प्रजा का पालन करने में निरन्तर तत्पर रहता था। वस्तुतः बह यथा नाम तथा गुण था ।।४४।।
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सौभाग्य सुन्दरी नामराज्ञी तस्यमनः प्रिया।
रूप सौभाग्य सम्पन्ना सा सतीय सतां किया ॥४५॥ अन्वयार्थ- (तस्य) उस प्रजापाल राजा की (मन:प्रिया) मन को प्रिय लगने वाली (रूपसौभाग्यसम्पन्ना) रूप और सौभाग्य से सम्पन्न (सौभाग्य सुन्दरी) सौभाग्य सुन्दरी (नाम) नामबाली (राजी) रानी (सतांक्रियाइव) सज्जनों की क्रिया समान (सा) वह (सती) हुयी।
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