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[ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिचरछेद भावार्थ—उस उज्जयनी नगरी में धावक और श्राविकाएं सभी पञ्चामतादि अभिषेक करते थे अष्ट द्रव्यों से पूजा करते थे । यह जिनपूजा दोनों लोकों में कल्याण करने वाली है । इस भव में सुख शान्ति और परभव में भी हर प्रकार की सुख सुविधा की सामग्री प्राप्त होती है । तथा परम्परा से स्वर्ग और मुक्ति देने वाली है। अत: वे भव्यात्मा प्रतिदिन शर्मदायिनी पूजा करते थे। इससे स्पष्ट है कि श्रावक और श्राविकानों को समान रूप से अभिषेक पूर्वक पूजा करने का अधिकार है। इससे पूर्व श्लोक में मुनि जन जिनालयों में निवास करते थे यह स्पष्ट होता है। जो लोग कहते हैं कि साधुओं को जङ्गल में ही रहना चाहिए या चतर्थ काल में सभी साध वनों में ही रहते थे यह निर्मल हो जाता है। उस समय भी अपनेअपने संहनन के अनुसार वनों और मन्दिरों, पर्वतों, गुफापों आदि स्थानों में निवास व चातुमासादि करतेथे ।।३।।
सदा जैनेश्वरीबाणों सर्वसन्देह हारिणीम् ।
श्रृण्वन्तिस्म सुखं भव्या मुनीनांमुखपङ्कजात् ॥४०॥ जनामा--(भामुमुक्षरता ) सतत (मुनीनांमुखपङ्कजात ) मुनि पुङ्गवों के मुखरूपी कमलों से (सर्वसंदेह) सम्पूर्ण संदेहों को (हारिणीम्) नाश करने वाली (जनेश्वरी वाणीम्) जिनवाली को (सुखं) सुख से (शृण्वन्तिस्म) सुनते थे ।
भावार्थ—उस नगरी के भव्य जीव प्रतिदिन श्रेष्ठ मुनिजनों के मुख पङ्कज से जिनेन्द्र भगवान की वाणी का श्रवण करते थे । वह जिनवाणी सर्व प्रकार के संदेहों को नाश करने वाली थी सुख देने वाली थी। अर्थात् तत्त्वों के विषयों में उत्पन्न शंका का समाधान करने वाली भगवान् सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र भागमानुसार वे ऋषिवर उपदेश करते थे । जिसका श्रवण कर भव्यजन तत्वज्ञ और ज्ञानी बन जाते थे ।।४।।
नित्यं सुपात्रदानेन भूरिमानेन सज्जनाः।
कुर्वन्तिस्मवतः शोलैः सफलं जन्मपावनम् ॥४१॥
अन्वयार्य--(नित्यं) प्रतिदिन (भूरिमानेन) अत्यन्त सम्मान से (सुपात्रदानेन । सत्पात्र दान देकर (व्रतैः शीलः) व्रत और शीलपालन कर (सज्जनाः) सत्पुरुष (जन्म) अपने जन्म को (पावन सफल) पवित्र और सफल (कुर्वन्तिस्म) कारते थे।
भावार्थ-श्रावक श्राविका सत्पुरुष सज्जन थे । वे प्रतिदिन शील, व्रत आदि से युक्त रहते थे । नित्यप्रति, अत्यन्त विनय एवं भक्ति से सत्पात्र दान करते थे । सदाचारी श्रेष्ठ एवं शुद्ध कुल वंश वाले श्रावक श्राविकाएँ ही जिनपूजा और सत्पात्र दान देने के योग्य हैं, उन्हें ही आचार्यों ने अधिकार दिया है । यहाँ शील और व्रत दोनों विशेषग इसी बात के द्योतक है।
यत्र नार्यों जिनेन्द्राणां धर्मकर्मणितत्पराः । सार शृगार संदेहास्सुपुत्राः कुलदीपिकाः ॥४२॥