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________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद | [ १७ (भव्यानाम) भव्य जीवा का (पापम् ) पाप समूह (तत्क्षरणात् ) उसी समय (यान्ति) नष्ट हो जाते हैं। (इति) यह माहात्म्य है उन बिम्बों और मन्दिरों के दर्शन का। मावार्थ-वह नगरी भव्य पुण्यात्मानों से भरी थी। साथ ही वहां के वन-उपवनों में न केवल श्रीडा निवारा थे अपितु विशाल सुवर्णमय जिनालय थे। उनमें रत्न निमित जिन विम्ब शोभायमान थे। गगनच म्बी शिखर स्वर्ण निमित रत्न जटित कलशों से मण्डित थे चारों ओर नानारङ्गों से रत्रित सैकड़ों ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं। उत्तम घण्टानाद से झन्कृत थे । अनेकों प्रकार के बाजों की ध्वनि गूजती थी। जिनका दर्शनमात्र सुख कारक था। भव्य मनोज्ञ बिम्बों का दर्शन मात्र करने से भव्य जीवों का पाप कल्मष उसी समय नष्ट हो जाता था जिस प्रकार सूर्योदय होते ही रात्रि जन्य तिमिर विलीन हो जाता है । यहाँ विचारणीय है कि निमित्त कितना प्रबल कार्य करता है। जिनका अभिप्राय है कि निमित्त सर्वथा हेय है कुछ भी कार्यकारी नहीं हो सकता मात्र उपादान ही ग्राह्य है, उन्हें यह सम्यक प्रकार अध्ययन करने योग्य है कि जिन भगवान् का सान्निध्यमात्र हेतु मिथ्यात्व तिमिर का प्रणाशक है, स्वानुभूतिका उकार पायात कराने में समाई निमित्त कारण है। साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् ही नहीं अपितु उनके प्रतिबिम्ब-प्रतिमाएँ भी उसी कार्य की साधक हैं। अतः निमित्त अत्यन्त आवश्यक है । मुनयोयेषुकुर्वन्ति जनानां श्रुतिसंकयाम् । अनेकैर्भव्यसंदोहैस्साधं शर्मशतप्रदाम् ॥३॥ अन्वयार्थ-- (येषु) उन जिनालयों में (जनानां) जनता के (श्रुति) सुनने योग्य (शर्मशतप्रदाम् ) सैकड़ों प्रकार से शान्ति प्रदान करने वाली (संक्रयाम् ) श्रेष्ठ कथा को (अनेकभव्यसंदोहैस्सार्धम् ) अनेकों भव्यजनों के साथ (मुनयः) मुनिजन (कुर्वन्ति) करते हैं । भावार्थ-उन जिनालयों में मुनिराज निवास करते थे। वे सतत भव्यजनों के योग्य कथाएँ करते थे । अनेकों भव्यजनों के योग्य कथाएँ करते थे 1 अनेकों भव्यजनों के साथ नाना प्रकार तत्व चर्चाएं करते थे। उनके योग्य उपदेश देते थे। धर्म कथाएँ सुनाते थे । सदुपदेश से भव्यरूपी कमलों को प्रसन्न करते थे॥३८।। श्रावकाः श्राविकायत्र नित्यंस्नपन पूर्विकाम् । जिनार्चा रचयन्तिस्म लोकद्वय शुभाबहाम् ।।३।। अन्वयार्थ--(पत्र) जहाँ पर उस उज्जयनीपुरो में (श्रावकाः) श्रावक (श्राविका:) श्राविकाएँ (नित्यम्) प्रतिदिन (लोत्राद्वय शुभावहाम्) उभय लोक में कल्याण करने वाली (स्नपनपूबिकाम्) अभिषेक पूर्वक (जिनार्चा) जिनेन्द्र भगवान की पूजा को (रचयन्तिस्म) करते थे।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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