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________________ ५०८] | श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद मोक्षादिसाधनम् ) स्वर्ग और मोक्षादि के साधन रूप (तत्प्रभावम् ) उस व्रत के प्रभाव को (समाकर्ण्य) सुनकर (ते) वे (सप्तशतसेवकाः) सातसौ सेवक (राजानः) राजा (च) और (परे) दुसरे (सर्वे) सभी ने (तथा) एवं (श्रीपालनन्दनाः) श्रीपाल जी के पुत्रों ने (तस्य) श्रीपाल की (मुख्या) प्रधान (कन्दर्पसुन्दरी) मदनसुन्दरी आदि (मनोहराः) सुन्दरी (देव्यः) देवियों ने (तथा) तथा (ते) वे (सर्वे) सभी (पौराः) पुरजनों (शूराः) शूरवीरों ने (तथा) एवं (पत्तनयोषिताः) नगर की नारियों ने (खगात्मजो) विद्याधरपुत्र (कुमारी) दो कुमारों (यो जो (चित्रविचित्रनामानो) चित्र विचित्र नाम वालों ने (श्रीपालस्य श्रीपाल के (सफण्ठ श्रीकण्ठ संशको) सुकण्ठ और श्रीकण्ठ नामक (द्वी) दो (स्यालको) साले (अथ) इसी प्रकार (यशोधननपनन्दनः) यशोधन राजा के सुत (सुशीलास्यः) सुशील (गन्धर्व:) गन्धर्व (विवेकाशील:) विवेकशील, (वनसेन) बज्रसेन (नामानि) नाम वाले प्रसिद्ध (चतुस्सुताः) चारों पुत्रों ने (हिरण्य संज्ञक स्नेहालुः) हिरण्यसंजक और स्नेहालु (इमौ) इन दो (भूपतिदेहजो) राजा के पुत्रों ने (सुधर्मकरणोत्सुको) उत्तम धर्म को पालन करने के लिए उत्सुक (स्थानकुकणनाथस्य) कुकरण स्थान का अधिपति के (आत्मजो) पुत्रों ने (राज्ञ:) राजा (मकरकेतोः) मकर केतू के (जीवन्तारव्य) जीवन्तनाम से प्रसिद्ध (सुन्दरात्मजो) सुन्दर पुत्रों ने (मदनसुन्दर्याः) मदनसुन्दरी के (पिता) जनक (प्रजापालनरेश्वरः) प्रजापाल राजा ने (अन्येऽपि) और भी (श्रीपाल सेविन:) श्रीपाल के आश्रित (बहवः) बहुत से (देशनायकाः) देशों के राजाओं ने, (अन्ये) दूसरे (बहवः) बहुत से (सुगुणशालिनः) उत्तम गुणवान (नरनार्याः) नर-नारियों ने (समेत्य) आकर(ते सर्वे) उन सबों ने (भूभुजा) राजा के (सार्द्धम् ) साथ(परमानन्दात्) अत्यन्त प्रानन्द से (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र के (सद्वतम् ) उत्तम व्रत को (स्वीच ऋ:) स्वीकार किया। नीति है (यथा राजा तथा प्रजा) जसा राजा हो वैसी ही प्रजा होती है। (इस्थम्) इस प्रकार (श्री जिनसिद्धचक्र विलसत् ) श्री जिन सिद्धचक्र का चमत्कार करने वाले (पूजा) पूजा के (प्रभावोत्तमम ) प्रभाव का माहात्म्य तथा श्रितसागरेण मुनिना) श्रुतसागर नामक मुनिराज द्वारा (प्रोक्तम्) कथित (स्वजन्मान्तरम् ) अपने भवान्तर (संश्रुत्य) सुनकर (सन्तुष्ट:) प्रसन्न हुआ (गुरुजनेनतमस्तक:) गुरुजनों में नतशिर हुआ (श्रीपालनामानृपः) श्रोपालनामा राजा (तद् ) उस (उत्तमम्) उत्तम (व्रतम्) व्रत को (लात्वा) लाकर (परिजनैः) परिवार सहित (पत्तनम् ) नगर को (सम्प्राप्तवान्) बापिस आये-प्राप्त हुए। भावार्थ-आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज श्रीपाल नृपति को पूर्वभव का विवरण देते हुए उपदेश कर रहे हैं कि हे राजन् छोड़ने के बाद तुमने श्रीगुरु के निकट जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः श्रावक के प्रत धारण कर यथायोग्य पालन भी किया। इसी के फलस्वरूप तुमने अपना राज्य पुनः प्राप्त किया और रतिसमान सुन्दरी मदनसुन्दरी जैसी परम पवित्रा शीलवती रानी मिली है। इस प्रकार अपनो भवावलो सुनकर धोपाल कोटीभट अत्यन्त हर्षित हना। उसका प्रानन्द से रोमाञ्च हो गया। महान भक्ति-भाव से नतशिर हो उन श्रतसागर गुरुराज को बारम्बार नमस्कार किया। तोनलोक का तारक भव दुःख निवारक. परम मङ्गलकारक श्रीसिद्धचक्रवत विधान पुनः त्रियोग शुद्धिपूर्वक स्वीकार किया । परमभक्ति भाव और हर्ष से व्रत धारण कर वह परमबोध को प्राप्त हुआ । वस्तुतः यह प्रत दुर्गति वा नाशक
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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