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________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [५५५ अन्वयार्थ-(ऊबंगामोस्वभावतः) स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला वह विशुद्वात्मा (एके नसमयेन) एक ही समय में (सम्यक्त्वादिगुणोपेतः) सभ्यक्त्व आदि गुणों से युक्त (बैलोक्यशिखरे) तीन लोक के शिखर पर (स्थितः) विराजमान हो गये । (तत्र) यहाँ शिवलोक में (निराबाधम्) अव्याबाघ (वाचामगोचरम्) वचन के अगोचर (अनन्तम्) अनन्त शाश्वतम) चिरस्थायी/म्बात्मजम प्रात्मोत्थ चितिहासदरगम ) कमी-वेशी रहित (सौस्यम ) सुख का (भृक्त ) भोगने लगे। (संसिद्धः) सिद्धि प्राप्त (समाराध्यः) अाराधनीय (विशुद्धः) कर्म कलङ्क रहित (विपत्रबन्दित:) संसार से नमस्करणीय (भवाम्भाधे) संसार सागर के (पारंप्राप्ते) तट को प्राप्त हुए श्रीपाल सिद्धात्मा (में) मेरे लिए (उत्तमम् ) उत्तम (मिद्धिम ) सिद्धि को (प्रदद्यात्) प्रदान करें । भावार्थ-सर्वकर्म विप्रमुक्त वे केवलीभगवान १. रसम्यक्त्व २. अनन्त ज्ञान ३.अनन्तदर्शन ४.अनन्त बोर्य ५. सूक्ष्मत्व ६. अवगाहनत्वम् ७. अगुरुलघुत्व और ५.अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से मण्डित हो एक समब मात्र में ऊर्वस्वभावी होने से तीनलोक के शिखर पर जा स्थित हए । मोहनीयकर्म का क्षय होने से परमावगाढ सम्यक्त्व प्रकट हुआ । ज्ञानावरणी कर्म के अभाव से अनन्तज्ञान । दर्शनावरणी कर्म के मंक्षय से केवलदर्शन । अन्तरायकर्म के नाश होने रो अनन्तवीर्य, नामकम के विनाश से सूक्ष्मत्व गुण । आयुक विध्वस्त होने से प्रवगाहनत्व गुरग । गोत्रकर्म संहार में अगुफल घु गुण तथा वेदनीय कर्म का सर्वथा उन्मूलन करने से अव्यावाध सुख उन्हें प्राप्त हुए । मोक्ष में जाने पर वहाँ वे वचनातीत अर्थात् जो वचनों द्वारा कथन करने में नहीं आवे. जिसका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है, जो अनन्त-असीम है, चिरन्तन है, आत्मोत्थ-स्वस्वभावजन्य है, एवं वृद्धि और ह्रास अर्थात् बदना-घटना जिसमें नहीं होता ऐसा सुग्व अनुभव करने लगे अर्थात् मुक्ति में इस प्रकार का सुख विशुद्धात्मा भोगता है । यहाँ प्राचार्य श्री १०८ सालकीर्तिजी महाराज उसी सुख की अभिलाषा से सिद्धपरमेष्ठी श्रीपाल जी से प्रार्थना करते हैं कि जो स्वयं सिद्ध हो चूके, संसार सागर को जिन्होंने पार कर लिया, परमविशुद्ध हो चके हैं अर्थात् त्रिविध कर्ममलकलङ्क से रहित हो गये, तीन जगत में वन्दनीयनमस्करणोय, सर्वाराध्य वे श्रीपालसिद्ध भगवन्त मुझे भी सिद्धि प्रदान करें । अर्थात उनको भक्ति पूजा आराधना से मैं भी उन्हीं के समान अपने प्रात्मगुणों को प्रकट कर उन्हीं के समान सिद्ध हो जाऊँ ।।१२७ म १२६।। तथा तपश्चिरंकृत्वा सती मदनसुन्दरी। छित्वा स्त्रीलिङ्गकाकष्टं धर्मध्यानेन पुण्यतः ।।१३०॥ महाशुक्रे सुरेन्द्रोऽभून्महाविभवसंयुतः । सुखंभुक्त्वाचिरं तत्र समागत्य महोतले ।।१३१॥ नरत्वं दिध्यमापाद्य तपः कृत्वा पुनः सुधीः । स हत्वाकृत्स्नकर्माणि क्रमाद्यास्यति नि तिम् ।।१३२॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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