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भोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद]
[५५६ सुनाते हैं, विशेष भक्ति से लिखते हैं, यथाशक्ति द्रव्य खर्च कर लिखवाते हैं-प्रकाशित करवाते हैं, प्रकाशित कर भव्यपात्रों को वितरण करते हैं. करवाते हैं एवं पुनः पुन: मन में इस चरित्र का चिन्तन करते हैं-स्मरण करते हैं उनकी वाञ्छित सिद्धियाँ सतत होती रहती हैं । सिद्धपरमेष्ठी का ध्यान चिन्तन सकल विघ्नों का नाशक और समस्त कार्यों की सिद्धिकारक होता है । इस पवित्र चरित्र का इसलिए लोकोत्तर महत्व है क्योंकि इसमें सिद्धभक्ति का अपूर्व प्रभुत्व और फल निरूपित है ।।१४१, १४२।। ।
इत्थं श्रीजिनधर्मकर्म निरतः श्रीपालनामानुपः । कृत्वेदं व्रतमुत्तमं शुभकरं रोगापहं शर्मदम् ॥ सम्प्राप्य प्रभुतां जिनेन्द्र तपसाकृत्वा क्षयं कर्मणाम्।
येनाप्तं परमपदं जिनपतिः कुर्यात् सदा मङ्गलम् ॥१४३॥ अन्वयार्थ-(येन) जिसके द्वारा (शुभकरम ) कल्याणकारी (रोगापहम् ) भीषण रोगनाशक (शर्मदम.) सुखकारक (उत्तमम् ) उत्तम (इदं) यह सिद्धचक्रवत (कृत्वा) करके (तपसा) तप द्वारा (कर्मणाम ) कर्मों का (क्षयम् ) क्षय (कृत्वा) करके (जिनेन्द्र) जिन भगवान की (प्रभुताम) महात्म्य को (सम्प्राप्य) प्राप्त कर (परमम् ) श्रेष्ठतम मुक्तिपद (प्राप्तः) प्राप्त किया गया (म:) वह (थोजिनधर्मकर्मनिरत:) श्री जिनप्रणीत धर्मकर्म में तल्लीन (श्रीपालनृपः) श्रीपाल राजा (जिनपत्तिः) जिन भगवान (सदा) सदैव (मङ्गलम्) मङ्गल (कुर्यात्) कर।
भावार्थ-- ऋमिक विकास करने वाले श्रीपाल भूपाल शिवरमणी भरतार हो गये। प्रथम श्रावकधर्म का सम्यक् प्रकार पालन किया । जिनधर्म-कर्म में निरत रहे । उत्तम शुभकारक, भीषण, असाध्य रोगनाशक, सुख-शान्तिदायक इस परमोत्कृष्ठ सिद्धचक्रव्रत को असीम श्रद्धा और भक्ति से धारण-पालन किया। राज्य बैभव भोग भोगे पुन: संसार, शर र, भागों, से विरक्त हो घोर दीक्षा-दिगम्बर वेष धारण किया । जनतपश्चरण किया । ठीक ही है 'जे क.म्मे शूरः ते धम्मे शूरः" उन महामनीषी ने राजकीय आरातियों को जिस प्रकार परास्त किया था उसी प्रकार अब पूर्ण साधना और परमध्यान के बल पर कर्मारातियों पर विजय प्राप्त की । सकलकर्मों का संहार कर डाला । परमपद मुक्तिराज्य में विजय पताका जा फहराई । चिरन्तन मुख प्राप्त कर अनन्तज्ञानादि गुणों का धारी वना । इस प्रकार अतोन्द्रिय, अलौकिक सम्पत्ति के धनी जिनपति श्रीपाल भूपाल जिनप्रभु सदैव मङ्गल कर ।।१४३।।
मन्वेतीह बुधाः कुरुध्यममलं श्रीसिद्धचक्रवतम् । ह्यतीति गुणार्णवं निरूपम विश्वक शर्माकरम् ॥ रोगाद्येष पिशाच चोर कुनृपारात्यग्नि दुष्टात्मभिः।
सन्तप्ताखिल दुःखनाश जनकं सर्वार्थ संसिद्धये ॥१४४॥ अन्वयार्थ-- (हि) निश्चय से (इति) उपर्युक्त यह व्रत (अति) अत्यन्त (निरूपम) अनुपम (गुणार्णवम ) गुणों का सागर (विश्वक) संसार में एकमात्र (शर्माकरम्) शान्ति