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[ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारक (एषः) यह (रोदादिपिशाचचोरकुनपारात्यग्निदुष्टात्मभिः) कुष्टादिरोग-पिशाच, डाकू. चोर. अन्यायी दुष्ट राजा, शत्रु, अग्नि, दुर्जनादि द्वारा (सन्तप्ताखिलदुःखनाशजनकम् ) पीडित किये जाने से उत्पन्न सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाला (इइ) इस लोक में (सर्वार्थसंसिद्धये) सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि करने के लिए (अमलम ) निर्मल (श्रीसद्धचक्रवतम् ) श्रीसिद्धचक्रवत है (इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (बुधाः) विवेकीजन इसे (कुरुध्वम् ) करें।
भावार्थ---आचार्य श्री सांसारी भव्य मानवों को कष्टापहारी, चिरसुखकारी सिद्धचक्र विधान व्रत अनुष्ठान करने की प्रेरणा दे रहे हैं । यह पाबन व्रत गुणों का आकर, अनुपम, एकमात्र शान्ति और सुख का उत्पादक है । इससे कुष्ठादि रोग नष्ट हो जाते हैं यह प्रत्यक्ष कोटीभट के जीवन से स्पष्ट है । भयङ्कर रोगों की रामबाण औषधि है। भूत, पिशाच, शाकिन्यादि से उत्पन्न बाधा इससे क्षणभर में विलीन हो जाती हैं । चोर, डाकू अन्यायी दष्ट राजा, शत्रु, अग्नि, दुर्जन आदि द्वारा प्रदत्त सन्ताप नष्ट हो जाते हैं । अर्थात् तस्कर भय नहीं होता । डाकू भी इसके प्रभाव से करता छोड़कर भाग जाते हैं । अन्यायी राजा भी परास्त हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाते हैं । अग्नि शीतल हो जाती है। दुर्जन सज्जन हो जाते हैं । ये समस्त घटनाएं महानुभाव श्रीपालजी के जीवन में घटित हुयीं यह इस ग्रन्थ के अध्येतामों को स्वयं अवगत है । राज्य त्याग, बननिवास, गलितकुष्ट, दस्युओं से युद्ध, बरबरों से संग्राम, सागर की लहरी से खिलवाड, शूलारोपण, भाडावगावा, आदि घटनाप्रो-कष्टों का निवत्ति का कारण क्या था? एकमात्र सिद्धचक्र अाराधना । कञ्चन सी काया होना, तस्करों को अके ही परास्त करना, स्थिगित जहाजों को निमिष मात्र में चला देना, जलदेवी को वश करना, अथाह-असीम सागर को भुजाओं से पार करना, सहस्रकूट चैत्यालय के वज़ कपाट खुलना, शुली आरोहन का संकट टरना, आदि चमत्कारी घटनाओं से इस व्रत का माहत्म्य स्पष्ट हो जाता है । यह महान पवित्र और जीवन शोधक व्रत है। यही नहीं समस्त संकटों से छ टकारा दिलाकर यह मोक्षसुख को प्रदान कराता है। परम कल्याणकारी चारों पुरुषार्थों का क्रमिक विकाश कर सिद्धिप्रदान करने वाला यह व्रत समस्त भव्य जीवों को धारण करना चाहिए ।।१४४॥
एवं सर्वसुरासुरेन्द्रहितः श्रीवर्द्धमाननतम् । प्राहेत्थं च जगद्धितं शुचितरं श्रीपालभूपालकम् ॥ श्रुत्वा श्रेणिकभूपतिश्च ससभ सन्तुष्टचित्तो महान् ।
नत्वातजिनपं मुनीन्द्रसहितं सम्प्राप्तवान् स्वं पुरम् ॥१४५।।
अन्वयार्थ--(एवम् ) इस प्रकार (जगत् + हितम) संसार का हितकर (शुचितरम् ) पवित्रतर (श्रीपालभूपालकम्) श्रीपालमहाराज का (व्रतम् ) सिद्धचक्रवत (सर्वसुरासुरेन्द्रमहितः) समस्त सुर और असुरों से वन्दनीय,-पूजनीय (श्रीवर्द्धमानः) श्री महावीर भगबान ने (प्राह) कहा । (च) और (इत्थम् ) इसको (ससभम्) सभासहित (श्रेणिकभपतिः) श्रेणिकमहाराज (श्रुत्वा) सुनकर (महान् सन्तुष्टचित्तः) महान प्रानन्द से प्रफुल्ल चित्त (मुनीन्द्रसहितम) गणधरादि सहित (तम ) उन (जिनपम.) जिनेन्द्र वीर प्रभु को (नत्वा) नमस्कार कर (स्वम ) अपने (पुरम ) पुर का (सम्प्राप्तवान् ) माये ।