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________________ [ ३२६ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] पाल:) जिनेश्वर की याज्ञा पालक हो (अहो) भो (भूपाल) पृथ्वीपति (श्रीपाल) श्रीपाल (भटोत्तमः) श्रेष्ठतमभर आप (मया) मुझ से (अज्ञानिना) अज्ञानता से (तीवम् ) अत्यन्त (पीडितः) पीडित (असि) हुए हो (च) और (चाण्डालः) चाण्डालों द्वारा (वञ्चितेन) ठगे गये (माम् । मुझे (त्वम्) आप (उच्चैः) विशेषरूप से (क्षमा) क्षमा (कुत्तु म्) करने को (अर्हसि) समर्थ हो (यतः) क्योंकि (सन्तः) सत्पुरूष (पीडितानाम्) दुखियों के ( हितकरा) हित करने वाले (एवं) ही (भवन्ति) होते हैं। भावार्थ-गुणमाला महासती पतिवियोग की आशङ्का से अातुर हो अतिशीघ्र मदनमञ्जूषा (मदनमषा ) को लेकर पायी । उसने अपने पति काटिभट श्रीपाल के कुल, वंश की पवित्रता और शुद्धता का पूर्ण यथार्थ परिचय दे दिया। जिसके सुनने मात्र से महाराज धनपाल का सन्देह दूर हो गया । अज्ञानवश उत्पन्न क्रोध रफूचक्कर हो गया। यही नहीं उसके स्थान, पर आपचर्य भरा पश्चात्ताप और लज्जा जाग्रत हो गयी । कोप के स्थान पर भय से कम्पन होने लगा। धैर्य हवा हो गया। दूसरे ही क्षरण, नंगे पर दौडता हुआ राजा अपने सत्पुरुषों साथियों के साथ श्मशान में या पहुंचा । श्रीपाल की अोर दृष्टि जाते हो लोट पायी और पलों के साथ गर्दन भी जमीन में जा लगी। मानों अपना मुख दिखाना ही नहीं चाहता हो । पर करे क्या ? मरना भी तो आसान नहीं है ? दैन्यभाव जागा कराजुलि जोड मस्तक नवाकर श्रोपाल के सम्मुख खडा होकर बोला "हे प्राज्ञ ! भो श्रीपाल ! संसार में आपके सदृश जिनभक्त. जिनशासन वत्सल अन्य कोई नहीं है, भो श्रीमन् आप जिनेश्वर की आज्ञा पालन में पटु और पुर्ण समर्थ हैं । जिनभक्त परोपकारी, दयालु और सर्वप्राणियों का रक्षक होता है । वह शत्रु-मित्र को समभाव मे ही देखता है। हे भटोत्तम ! मृझ अज्ञानी ने आप निरपराध को महान पीडा पईचाई है, मैं दुर्बुद्धि हूँ। इन धूर्त चाण्डालों ने मुझे ठग लिया है। इनसे वञ्चित होकर ही मुझसे यह अपराध हो गया है यद्यपि यह अक्षम्य है तो भी आप जैसे महान भाव द्वारा क्षम्य ही है क्योंकि अमृत का कितना ही मन्थन किया जाय, वह अपने सुख कर स्वभाव को नहीं छोडता, उसी प्रकार सज्जन दर्जनों द्वारा कितना ही पोडित किया जाय परन्तु वह अपने उदात्त क्षमागुण से चलित नहीं होता । पाप क्षमाशील हैं, उदार मनस्वी हैं, अपने समस्त अज्ञान जन्य अपराधों को क्षमा करने में समर्थ हैं । "क्षमावीरस्य भूषणम् ।" पाप वीरों के वीर हैं धयोंकि क्षमा के सागर हैं । मैं पुनः पुनः अपनी भूल के लिए क्षमाप्रार्थी आप अवश्य ही क्षमा करें ।।१६१ से १६३।। randir HAND
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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