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[ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
श्रीपालोऽपि तदा प्राह क्षण भूप मदोरितम् । श्रहं कोटिभो सीके नो शक्यो बाधितुं परैः ॥ १६४॥
ग्रन्वयार्थ - ( तदा ) राजा की प्रार्थना सुन, तब ( श्रीपाल : ) कोटिभट श्रीपाल (अपि) भी ( प्राह ) बोले ( भूप ! ) नरेन्द्र ! ( मत्) मेरा ( ईरितम् ) कथन ( श्रृण) सुनो, ( अहम् ) मैं (कोटिभटः ) कोटिभट हूँ ( लोके) संसार में (पर: ) अन्य किन्हीं के द्वारा (बाधितुम् ) बाधित होने में (नो - शक्यः ) समर्थ नहीं ।
मावार्थ - महाराज धनपाल को भयातुर और विनम्र देखकर कोटिभट श्रीपाल अपने सुर से बोला, हे भूपेन्द्र ! मेरा कथन सुनो, मैं कोटिभट हूँ । एक करोड़ महान वीरों को हाथ के चपेटों से मार भगा सकता हूँ। आप मुझे क्या बांध सकते हैं? मैं यहाँ यह बन्धन में दीख रहा हूँ यह मेरा कौतूहल मात्र है। मैं भाग्य की विडम्बना का नाटक देखने को यह सब कर रहा था ।। १६४।। सुनो---
किन्तु कर्मोदयं राजन् विनोदेन विलोकयन् ।
तूष्णीं स्थितो महाभाग किं पुनर्भूरि जल्पनः ॥ १६५॥
अन्वयार्थ ( राजन् ) हे पृथ्वीधर ! (किन्तु ) लेकिन ( महाभाग) भो महाभाग्यशालिन् (कर्मोदयम्) कम के उदय को ( विनोदेन ) कौतूहल से ( विलोकयन् ) देखते हुए ( तुष्णों) मौन से ( स्थितः ) बैठा ( भूरिजल्पनः ) अधिक कहने से (पुनः) फिर ( किम् ) क्या ?
भावार्थ - श्रीपाल कह रहा है कि हे राजन् है महाभाग ! मैंने आपका प्रतीकार नहीं किया। आपके दण्ड को सहर्ष स्वीकार कर लिया, इसका अभिप्राय यह नहीं कि मैं असमर्थ था, प्रयोग्य था या नोच कुलोत्पन्न था, किन्तु उसका अभिप्राय मात्र इतना ही था कि मैं भाग्योदय के नृत्य को विनोद से देखना चाहता था । कर्म सूत्रधार क्या-क्या नाटक करता है। यह भी कौतूहल देखना चाहिए। अधिक कहने से क्या ? जो जो बन्धन मेरे शरीर पर हैं वे सब मेरी इच्छा से हैं तुम और ये तुम्हारे सेवक बेचारे क्या कर सकते थे ? तुम महामूढाधिराज हो ।। १६५ ।।
पुनर्वीराग्रणीराह राजंस्त्वं मुग्ध मानसः ।
सद्विचारं न जानासि लक्षणं च नृपात्मजाम् ।। १६६ ।।
श्रन्वयार्थ - - (पुनः) फिर ( वोरामणीः ) बोर गिरोमणि (ग्रह) बोला ( राजन् ) हे राजा ( त्वम् ) तुम ( मुग्धमानसः) मूढ - विचार शून्य हो. (सत् ) श्रेष्ठ ( विचारम) विचार को ( न जानासि ) नहीं जानते हो (च) और (नृपात्मजाम ) राजकुलोत्पन्न राजकुमारों के ( लक्षग्राम) लक्षणों को भो ( न जानासि ) नहीं जानते हो ।