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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
[३५१ अन्वयार्थ--(दूतवाक्यम्) दूत के वचन (रामाकर्ण्य) सुनकर (प्रसन्नधीः) प्रमुदितमति (श्रीपालः) श्रीपाल (अपि) भी (महाविभूत्या) महानवैभव के साथ (तत्र) वहाँ (गवा) जाकर (स:) वह (तासाम् ) उन कन्याओं का (पतिः) भर्ता (वभूव) हो गया।
भावार्थ- समाचार लाने बाले उस दूत के वचन सुनकर श्रीपाल को अत्यन्त हर्ष हुआ । बहुत वैभव के साथ प्रस्थान किया । वहाँ पहुँच कर उन कन्याओं का वरण कर लिया। सबका पति हुा ।।२२।।
काञ्चनाख्यपुरे तत्र प्राप्त कन्यादि सम्पदा । कानिचिच्च दिनान्युच्चैः स्थित्वा परिवृढस्सुखम् ॥२३॥ ततश्चान्तः पुरे नाम श्रीपालो महिमास्पदम् । चक्रे प्रयारणकं चाग्ने गन्तुकामस्तदा मुदा ॥२४॥ यावत्ताबच्चरः कोऽपि तं प्रणम्य जगाद च
श्रूयतां भो प्रभो सतां मदीयं वचनं शुभम् ॥२५॥ अन्वयार्थ---(तत्र) वहाँ (काञ्चनाख्यपुरे) काञ्चन नामक पुर में (कान्यादि) पुत्रियाँ आदि (सम्पदा) सम्पत्ति (प्राप्तः) प्राप्त करने वाला (कानिचित) कुछ (च) और (दिनानि) दिन (उच्चः) विशेष (सुखम् ) सुम्न (परिवृतः) वृदिगत करता हुआ (स्थित्वा) रह कर (तत:) पुन: (महिमास्पदम) महिमा का स्थानभूत (अन्तः पुरे) अन्तः पुर में (श्रीपान नाम) श्रीपाल राजा (अन) आगे (गन्तुकामः) जाने के लिए इच्छावान (च)
और (मुदा) प्रसन्न (प्रयागकंचक्र) प्रयाण को उद्यत हुआ (तदा) तभी (यावत्) जैसे ही (तावन्) उसी समय (कोऽपि) कोई भो (चरः) दूत (तम्) उसे (प्रणम्य ) नमस्कार कर (जगाद) बोला (भो) हे (प्रभो) स्वामिन् (मदीयम् ) मेरे (सत्यम्) यथार्थ (च) और (शुभम्) कल्याणकारी (वचनम् ) वचन (श्रूयताम) सुनिये--
कणाख्ये महाद्वीपे रत्नराशि समुज्वले । तद्देशाधिपतिः ख्यातः सुधीविजय सेवनात् ॥२६॥ भूपतेस्तस्य संजाताः पूर्वपुण्येन निर्मलाः यशोमालामहादेयी प्रमुखाश्चारू बल्लभाः ॥२७॥ सर्वाश्चतुरशीतिस्तास्सद्रूपादि गुणान्विताः ।
लावण्यरस सम्पूर्णा सिन्धोर्वेला यथाखिलाः ॥२८॥ अन्वयार्थ- (रत्नराशिसमुज्वले) रत्नों के ढेर से चमत्कृत (कणाख्ये) कण नाम के (महाद्वीपे) विशाल रत्नद्वीप में (विजय सेवनात्) विजयी होने वाला (ख्यातः) प्रसिद्ध (सुधीः) मतिमान् (तद्देशाधिपतिः) उस देश का अधिपति राजा है (तस्य) उस