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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद (भूपतेः) राजा के (पूर्व पुण्येन) पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म से (निर्मला:) अत्यन्तशुद्धशीला (यशोमालामहादेवी प्रमुखाः) यशोमाला है प्रधान जिनमें ऐसी (सर्वा) सभी (सद्र पादि) उत्तम सौन्दर्य (गुणान्विताः) नाना विज्ञान कला मण्डिता (च) और (लावण्य रस) लावण्य रूपी रस से (सम्पूर्णाः) भरी हुपी (अखिला:) सभी (यथा) जैसे (सिन्धोर्वलाः) सागर की लहरें हों ऐसी (चतुरशीतिः) चौरासी (ताः) बे (वल्लभाः) प्रियाएँ (संजाताः) हुयीं । अर्थात हैं।
भावार्थ---अब कोटीभट श्रीपाल अनेकों रानियों के साथ नानासम्पदाओं को पाकर सुख पूर्वक वहीं काञ्चनपुर में रहने लगा। उसका अन्तपुर महामहिमा और मुख की वृद्धि का स्थान हो गया। इस प्रकर नानाभोगों में रमण करते हुए उसके कुछ दिवस निकल गये । मनस्वी और पुरुषार्थी मानब कितने ही भोगोपभोग के साधन क्यों न प्राप्त कर ले किन्तु वह कर्तः कि नहीं होत. : नीतिकारों गे रहा है कि ...
स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति सिंहसत्पुरुषः हयः.
तत्रैव मररणं यान्ति, काकः कापुरुष: गजः ।। अर्थात--सिंह, उत्तमपुरुष और अश्व अपने कार्य की सिद्धि के लिए अयवा बिपत्तियों के परिहारार्थ जन्मस्थान को त्याग कर अन्यत्र यथोचित स्थान में चले जाते हैं । हर प्रकार से अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं । जीविकोपार्जन के साधन जुटा लेते हैं, परन्तु काक कायर पुरुष और हाथी दुःखी भी होकर कहीं नहीं जाते अपितु पालसी टू वहीं पडे-पडे मर जाते हैं । अत: अन्तःपुर स्वर्ग समान रहते हुए भी श्रीपाल अन्यत्र गमन को तत्पर हुया । वह जिस समय प्रयाण करने की बात सोच ही रहा था कि उसी समय एक दूत आया । नमस्कार विनय पूर्वक हर्षित हुआ बोला हे प्रभो ! भो स्वामिन् मेरे वचन सुनिये । एक कङ्कण नामक महान रत्नद्वीप है । इसमें चारों और रत्नों की राशियाँ लगी रहती हैं । इन नवरत्न राशियों से समस्त महाद्वीप जग-मगाता रहता है । वहाँ का अधिपति राजा मेरा स्वामी विजय का प्रेमी मतिमान और गुणवान विजयसेन प्रसिद्ध है । उस राजा के उसके पूर्वसंचित पुण्य का मूर्तिमान रूप समान चौरासी (८४) देवियाँ रानियाँ हैं। इनमें मुख्य पट्ट देवी यशोमाला है जो पातिव्रत धर्म से यश की पताका ही है । ये सभी अनिंद्य सुन्दरी, रूप, लावण्य, शील गुणादि से भरी सागर की लहरों समान मन मोहनी-हास विलास सम्पन्न हैं। जग मोहक इनका सौन्दर्य प्रद्वितीय है । राजा की प्राणप्रिया सतत पति को अनुगामिनी सुख की खान हैं ।।२३ से २८।।
हिरण्यगर्भा नामादि पुत्रास्तस्य महीपतेः । बभूवुर्बहवश्शूराः कुलस्य तिलकोपमाः॥२६॥ शतानि षोडशप्रोक्ताः सुतास्सार गुणोज्वलाः
रूप सौभाग्यसद्रत्नखानयो वा हितकराः ।।३०॥ अन्वयार्थ-- (तस्य) उस (महीपतेः) राजा के (हिरण यगर्भनामादि) हिरण्यगर्भ