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________________ ५००] श्रापाल चरित्र नवम् परिच्छेद प्रत्यक्ष केवलज्ञानभास्करान् श्रीजिनेश्वरान् । सुधीः सम्पूजयामास लोकलोक प्रकाशकान् ॥१२६।। अन्वयार्थ—(रूपलावण्यसन्दोह) रूपलावण्य की खान (देववृन्दः) देवसमूहों के द्वारा प्राप्त (उत्तमान् ) सर्वोत्तम (शब्दमात्रसुखाकरान्) शब्द सुनने मात्र से जो सुख पहुंचाने वाले हैं ऐसे (महाभोगान) महान भोगों को (स:) वह इन्द्र (भुक्त स्म) भोगने लगा (कदाचित्) कभी-कभी (देवीगणादिभिः) देवियों के समूहों (युक्तः) सहित (निजलीलया) अपने लीलामात्र से-इच्छानुसार (ध्वजाय :) ध्वजादि से (परिमण्डितः) सुशोभित (साररत्न) उत्तमरत्नों के (विमानस्थ) विमान में स्थित हो (शाश्वतसुक्षेत्रभूमिषु) अकृत्रिम अनाद्यनिधन उत्तम क्षेत्रों और भूमियों में (स्वशुभोदयात्) अपने पुण्योदय से (अणिमादि) अणिमा, महिमा लघिमादि (गुणोपेतः) गुणों सहित (महाविभवसंयुतः) महावैभवसहित (सुधीः) वह सम्यरदृष्टि भव्यात्मा (लोकालोक प्रकाशकान्) लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले (प्रत्यक्षकेवलज्ञानभास्करान्) प्रत्यक्ष केवलज्ञानरूपी सूर्य (थोजिनेश्वरान्) श्रीनिनेश्वर प्रभुयों को (सम्पूजयामास) पूजा करने लगा। भावार्थ:-बह शतारेन्द्र अपने अनेकों परिवार देव देवियों से यरिक्त था । देव-देवियाँ सौन्दर्य की खान थे। एक-एक का रूप, तेज गरिमा अनूठी थी सभी अपार सौन्दर्य, रूप लावण्य की वापिकाएं थीं। उसको शब्दमात्र सुनने से प्रबीचार-काम वासना शान्त हो जाती थी। इन्द्राणियों की मधुरवाणी, धुधरूओं की झङ्कार, किकिणियों का मधुर रव सुनकर ही वह मन्तुष्ट हो जाता था । अनेकों फ्रीडाए करता रत्न निर्मित विमान नाना प्रकार की ध्वजा, तोरण और क्षुद्र घण्टिकानों से सुसज्जित था । उसमें बैठकर स्वैच्छानुसार उन, उपवन, हम्य उत्तम प्रकृत्रिम भोग भमियों, क्षेत्रों में जा-जाकर क्रीडा करता था। शुभोदय से प्राप्त सुलभ भोगों में वह तल्लीन नहीं हुआ। उसने मात कर लिया था कि यह सुख सम्पदा, वैभव श्रीजिन और श्रीसिद्धचक्र पूजा, व्रत विधान का फल है । अस्तु पुन: मुझे यहाँ सम्यक्त्व पुष्टि और वृद्धि का सुपुष्ट निमित्त भूत जिनभक्ति, मुरुभक्ति करना चाहिए । अतएव वह सपरिवार मोगों में विरक्ति रखता हमा, साक्षात जिनेप्रवर भगवान विराजमान समावशरण में जाकर बन्दना करता । केवलज्ञानरूपी भास्कर की किरणों में स्नान करता अर्थात् प्रत्यक्ष केवली भगवान को दिव्य वाणो रूप अमतकरणों में डबकी लगाता था। उसे अणिमा-महिमा, लघिमा, गरिमा, ईशत्व, वशित्व प्राकाम्य आदि महाऋद्धियाँ प्राप्त थीं। वह पूर्णतः स्वतन्त्र और जिनभक्त शिरोमणि इन भोग और ऋद्धियों को पाकर भी जल तें भिन्न कमलवत् धर्मध्यान में लीन रहता था । लोकालोक को युगपत जानने वाले श्री सर्वज्ञभगवान के साक्षात् दर्शन कर परम प्रानन्द और सन्तोष धारण करता था । इस समय उसने सपरिवार प्रत्यक्ष प्रभु की पूजा की ।। १२३ से १२६ ।। श्रलोक्यस्थ जिनागारे मेर नन्दीश्वरादिषु । महा बिभ्वानि रत्नानां स स्सुधीस्सम्यगर्चयन ।।१२७॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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