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श्रोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ]
कदाचित् निजदेवोभिः कोडया सुरसत्तमैः । स्वयम्भूरमरण द्वीप पर्यन्तं सञ्चरन् सुधीः ॥१२॥ कल्याण पञ्चके कुर्धन सोऽर्हतां परमार्चनाम् । विभूत्या परया भक्तया नमस्कारं च योगिनाम् ।।१२।। अष्टादश समुद्रायु साद्धं त्रिकर देहभाक् । चतुर्थ्यायनि पर्यन्तावधिज्ञान विलोचनः ।।१३०॥ तत्तुल्य विक्रिययाढयो नानाविधविचित्रकृत । अष्टादश सहस्राग्दे गतेऽमत हुदाहरन् ।।१३१॥ नव मासे यतिकान्त मनागुच्छवासमाश्रयम् । सप्तधातुमलस्वेदातिग दिव्यशरीरयान् ।।१३२॥ सौधोद्यान बनाढ्यादिष्यसंख्य द्वीप याद्धिषु । प्रकुर्वन् स्वेच्छया कोडी स्वेन्द्राणोभि स्समं मुदा ॥१३३॥ रभ्यमप्स रसान् पश्यन् शृङ्गारनत्यमूज्जितम् ।
बुभुजे परमं सौख्यं सत्पुण्य परिपाकतः ॥१३४॥ प्रन्ययायं--(सः) वह इन्द्र (सुधीः) बुद्धिमान {त्रैलोक्यस्थ) तीन लोक स्थित {जिनागारे) जिनालयों में (मेहनन्दीश्वसदिषु ) मेरु पर्वतों और नन्दीश्वरादि द्वीपों में चिराजित जिनालयों में विराजमान (रस्नानाम ) रत्नों के (महाविम्बानि) विशाल जिनबिम्बों को (सः) वह (सुधीः) पबित्रात्मा (सम्यक) विधिवत् (अर्चयन ) पूजता हुआ (कदाचित् कभी (निजदेवीभिः) मपनी देषियों के साथ कभी (सुरसत्तमैः) उत्तम देवों के साथ (क्रीडया) खेल-कूद के लिए (स्वयम्भरमणद्वीप पर्यन्तसञ्चरन्) स्वयम्भूरभरणदीप तक संचार करता हुआ, (सुधीः) वह बिवेकी कभो (पञ्चकल्याण के ) पञ्चकल्याणक (कुर्वन् ) करता हुआ (सः) वह (परया) उत्कृष्ट (भक्त्या ) भक्ति (विभूत्या) विभूति से (अर्हताम ) जिनेश्वरों की (परमाचनाम) महापूजा (च) और (योगिनाम् ) वीतरागी साधुराजों को (नमस्कारम) नमस्कार (कुर्वन्) करता था (अष्टादशसमुद्र आयुः) उसकी आयु अठारह सागर (साईत्रिकर) साढे तीन हाथ (देहभाक्) शरीरधारी था, (चतुर्थी) चौथो (अवनि) पृथ्वी (पर्यन्त) तक (प्रवधिः) अवधिज्ञान (विलोचनः) से देखने वाला था (तत्तुल्य) उतने ही प्रमाण (विकिदयाह्यः) बिक्रियाऋद्धिधारी (नानाविधचिपकृत ) नाना प्रकार के रूप बनाने में समर्थ था, (अष्टादशसहस्राब्देगते) अठारह हजार वर्ष बीतने पर (अमृतम ) अमृत रूप (हृद्) मानसिक (आहारन्) पाहार करता हुआ, (नत्रमासै:) नवमहीने (व्यतिक्रान्तः) व्यतीत होने पर (मनाक्) बल्प (उच्छवासम ) उच्छ्वास (प्राश्रयन्) लेता हुआ, (सप्तधातुमलस्वेदातिम)