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[ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद
प्राप्त करो, यशोकीति से विश्व को व्याप्त करो । इत्यादि सैकड़ों आशीर्वचन तथा शिक्षा वचनों को कहते हुए उन्होंने अपने-अपने पुत्र के मस्तक पर और ललाट भाग पर दही, चन्दन अक्षतों का क्षेपण किया और उत्साह वर्धक वचनों के साथ उन्हें युद्ध के लिये विदा किया। इस प्रकार सैकड़ों भटों के साथ वह राजा वीरदमन भतोजे-श्रीपाल को जीतने के लिये नगरी से बाहर निकला ॥३८ ३६।।
दूतोदितं समाकयं श्रीपालो विमलः प्रभः।
कुपित्या सन्मुखं प्राप यमस्योपरि वायमः ॥४०॥ अन्वयार्थ-(दूतोदितं समाकर्ण्य) दूत के द्वारा कहे गये वचनों को सुनकर (विमल: प्रभुः) निर्मल श्रेष्ठ गुणों के धारी राजा (श्रीपालो) श्रीपाल (कुपित्वा) क्रोधित होकर (सन्मुखं प्राप) वीरदमन के सन्मुख आ गया जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो (यमस्योपरि वा यमः) यम के ऊपर यम आ गया है अर्थात् दोनों की मुद्रा यमराज के समान दीखती थी ।
मावा-उसी समय अपने दूत के वचनों को सुनकर क्रोधित हुया श्रीपाल भी रण क्षेत्र में आ गया। वीरदमन के सन्मख उपस्थित श्रोधाविष्ट श्रीपाल को देखकर यह ऐसी उत्प्रेक्षा करते हैं कि मानो यम के ऊपर यम ही पा गया है। अर्थात् दोनों यमराज के समान भयङ्कर दीखते थे । परस्पर एक दूसरे को मारने के लिये तत्पर उनकी क्रूर दृष्टि यमराज के समान भय कारी यी ।।४।।
ततस्तयोर्महायुद्धे नानाशस्त्रसहस्रकः । अश्वगंजैरथैस्तुङ्ग पादातिजनवृन्दकैः ॥४॥ प्रयत ने स्वराज्यार्थ क्षीयमाने भटोत्करः । तदा मन्त्रिवरक्ष्यि तयोयुद्धं प्रजाक्षयम् ॥४२॥ प्राज्ञा जैनेश्वरी दत्त्वा देवेन्द्राधैस्समच्चिताम् ।
सैन्ययोश्च द्वयोः प्रोक्त श्रूयतां भी प्रभोत्तमौ ।।४३।। अन्वयार्थ - (तत:) उसके बाद (नानाशस्त्रसहस्रके:) नाना प्रकार के हजारो शस्त्रों से (अश्वगजरथेस्तई विशाल-विशाल हाथी, घोडा और रथों से (पादानिजनवन्दकः) पैदल चलने वाली सेना समुह से युक्त (भटोत्करै:) सुभटों से होने वाले (तयोः) उन दोनों राजानों के (क्षीयमाने युद्धे) विनाशकारी सुद्ध में (स्वराज्याथ) अपने राज्याधिकार के लिये (प्रवर्तने) प्रवर्तित होने पर (तदा) उस परिस्थिति में (प्रजाक्षयम ) प्रजा का क्षय करने वाले (तयोः) उन दोनों के युद्ध को (वीक्ष्य ) देखकर (मन्त्रिवरः) श्रेष्ठ मन्त्रियों ने (देवेन्द्राचं स्समर्चिताम्) देवेन्द्र आदि से समचित ऐसी (प्राज्ञां जैनेश्वरी) जिनाज्ञा प्रदान कर (इयो: सैन्ययोश्त्र) और दोनों पक्षों की सेनाओं के राजामों को (प्रोक्तम् ) कहा (भो प्रभोनमौ) हे श्रेष्ठ राजाओ! (श्रूयताम ) मुनें---