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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद दुःखी आपके साथ मेरा विवाह कर दिया था। पिता के उस अज्ञानता पूर्ण व्यवहार के प्रति मेरा द्वेष है, उससे हमारा मन उद्विग्न है, प्रशान्त है अतः उसकी शान्ति के लिये तथा पिता के मिध्या अहंकार को मिटाने के लिये उनको इस प्रकार प्रादेश रूप दण्ड देना चाहिये -
कम्बलं परिधाय त्वं स्वदेहे स्थगले तथा। धृत्वा परशुमाशूच्चैः पादचारी च साम्प्रतम् ॥१३७॥ दलाजीवस्य वेषेण समागत्य परिच्छदैः ।
सत्यमेतद्धि पादाब्जौ तदाते कुशलं ध्रुवम् ॥१३८।। अन्वयार्थ- (त्वम् ) तुम (स्वदेहे स्वगले तथा) अपने शरीर तथा गले में (कम्बल परिधाय) कम्बल लपेटकर अर्थात् प्रोढ़कर (परशु धृत्वा) कुल्हाडी लेकर (लाजोवस्यवेशेण) हल से जीबन चलाने वाले कृषक के वेष से (पादचारी) पैदल (परिच्छदः) राज्य परिकारों के साथ (साम्प्रतम ) अभी (उच्चैः) शीघ्र (पादाब्जी समागत्य) चरण कमलों में आकर पड़ो (सत्यमेहद् हि) निश्चय से यह सत्य है कि (तदा) तभी (ते ध्र वम, कुशल) तुम्हारी घ्र व कुशलता सम्भब है ।
भावार्थ-वह प्रजापाल राजा अहंकारी है अतः अहकार के मर्दन हेतु उससे कहलाओं कि तुम अपने शरीर को कम्बल से ढक कर, गले तक कम्बल लपेट कर कुल्हाड़ी लेकर पैदल ही अपने राज्य परिकरों के साथ शीघ्र अभो हो आओ और थोपाल महाराज के चरणकमलों में शरण लो तभी तुम्हारी ध्र व कुशलता संभव है अर्थात् ऐसा करने पर हो तुम्हारा जीवन और राज्य सुरक्षित रह सकता है । इस प्रकार हमारे पिता को आप अपने पास मिलने के लिये बुलावें। क्योंकि उनके मिथ्या मान को दूर करने का यही श्रेष्ठ उपाय हो सकता है। इस प्रकरण को पढ़कर पाठकगण यह न समझे कि मैंनासुन्दरी ने प्रतिशोध की भावना से अथवा द्वेष भाव से पिता के साथ यह अनुचित व्यवहार किया है । मैंनासुन्दरी का हृदय स्वच्छ पवित्र है तथा पिता के प्रति प्रीति और श्रद्धाभाव भी है फिर भी इस प्रकार की प्राज्ञा अपने पिता के लिये जो दी उसका कारण यह है कि वह अपने पिता को जैनधर्म का प्रभाव दिखाना चाहती थी और उनके मिथ्या अहंकार को दूर कर उनको जिनधर्म में आरूढ़ करना चाहती थी। जैसा कि अगले मलोक में स्पष्ट किया है. ॥१३७, १३८।।
मिथ्यागर्वोऽस्ति भी नाथ मानसे तस्य भूपतेः ।
यथा गर्वो गलत्येषस्तथा कार्यं त्वया प्रभो ॥१३॥ अन्वयार्थ ...(भो नाथ! ) हे नाथ ! (तस्य भूपतेः उस प्रजापाल गजा के (मानसे) मन में (मिथ्या गर्वो) मिश्या अहङ्कार (अस्ति । है (प्रभो। अत: हे प्रभ ! (त्वया तथा कार्य) सुम्हारे द्वारा वैसा ही किया जाय (यश्रा) जैस (एषःगर्यो गलति) यह मिथ्यागर्व नष्ट होने ।
भावार्य--अहंकार समस्त दोषों का मूल है, विवेक को नष्ट करने वाला है उस