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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ]
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सीन हुयी। सभी भव्य प्राणियों को सुखदायक विषद् विनाशक धर्म सेवन करना चाहिए । पुण्यार्जन करना चाहिए। सिद्धपरमेष्ठी की प्राराधना पूजा और भक्ति करना चाहिए । वैराग्य पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति से सांसारिक सकट टल जाते हैं, आत्म शुद्धि होती है त्याग, और दयाभाव जाग्रत होता है । अतः धर्म सेवन अनिवार्य है ।। १३३ ।।
श्रीपालस्तु तदा प्राह तां सतीं मुख्यकामिनीं ।
कया रीव्या प्रजापालो द्रष्टव्यो ब्रूहि सुन्दरी ।। १३४ ||
अन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( तां सतीं मुख्यकामिनी) उस सती पटरानी की ( श्रीपाल : तु प्राह ) पाल ने पूछा (सुन्दरी ! ब्रूहि ) हे मुन्दरी कहो, ( प्रजापालो ) प्रजापाल राजा अर्थात् तुम्हारे पिता (कया रीव्या) किस रीति से ( द्रष्टव्यो ) देखे जायें ?
भावार्थ - तदनन्तर कोटिभट महामण्डलेश्वर राजा श्रीपाल अपनी मुख्य रानी-पट्टरानी मैना सुन्दरी से पूछते हैं कि हे सुन्दरी ! अब मैं तुम्हारे पिता प्रजापाल से मिलना चाहता हूँ सो बताओ कि किस प्रकार से उनसे मिलना चाहिये ।। १३४ ।।
ततः श्रीपालमित्यास्य द्वेषान्मवन सुन्दरी ।
भो नाथ मत्पिता गर्यो कर्मस्थापन तत्परा ।। १३५||
क्रुधा दुःखाय मां तुभ्यमददात्कर्म परीक्षः ।
अतो मद्वेष शान्त्यर्थं तस्येदं दण्डमादिश ।। १३६ ।। स्था
अन्वयार्थ - - ( ततः ) तदनन्तर ( कर्मस्थापनतत्परा ) धर्म स्थापना में तत्पर अर्थात् कर्मसिद्धान्त पर विश्वास करने वाली ( मदनसुन्दरी ) मैंनासुन्दरी ने ( श्रीपाल ) श्रीपाल महाराज को (इति) इस प्रकार ( आख्य) कहा ( भो नाथ ! ) हे स्वामी ! ( मतत्पिता ) मेरे पिता (गर्वी) श्रहंकारी हैं (द्वेषात् ) द्वेष से ( कर्मपरीक्षः) कर्म की परीक्षा के लिये (धा) क्रोध से युक्त होकर (माँ) मुझको ( दुःखाय तुभ्यं ) दुःखो तुम्हारे लिये ( अददात् ) दे दिया ( श्रतो ) श्रतः (मत् द्वेषशान्तयर्थ ) मेरे साथ जो द्वेष किया उसको शान्ति के लिये ( तस्य इदं ) उसके लिये ऐसा ( दण्डम् ) दण्ड रूप ( आदिश ) आदेश करो ।
भावार्थ--तब मैंन। सुन्दरी ने श्रीपाल महाराज को कहा कि मेरे पिता अहंकारी हैं उनके मन में इस प्रकार की धारणा बनी है कि मैं ही सबका पालन पोषण रक्षण करने वाला हूँ पर का सुख दुःख भी मेरे श्राश्रय से है । अस्तु विवाह के प्रसङ्ग में मैने यह कहा कि शीलवती कन्या कभी अपने मुख से यह नहीं कहतीं कि मुझे प्रमुख पुरुष पसन्द है मतः हे पितृवर ! आप ही मेरे लिये प्रमाण हैं। योग्यवर देखकर ही पिता अपनी कन्या को श्रर्पित करते हैं और उसके बाद सुख दुःख आदि तो कर्माधीन है । अपने-अपने कर्मानुसार यह जीव सुख और दुःख की सामग्रियों को प्राप्त करता है। इस प्रकार के मेरे वचन को सुनकर पिता के अहंकार को धक्का लगा और ऋद्ध होकर उन्होंने हमारी कर्म को परीक्षा के लिये कुष्ट रोग से पीडित अति