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________________ धापाल चरित्र प्रथम परिच्छेद [ ४५ विज्ञप्तो देवदेवेन्द्र वन्दितो जिनपुङ्गवः । वर्द्धमानस्समायातो विस्तीर्णे विपुलाचले ॥२॥ अन्वयार्थ (यावत्) जिस समय इस प्रकार (सुखं ग्रास्ते) सुखपूर्वक विराजमान (तावत्) उसी समय (सादरम्) अादर पूर्वक (तम् प्रणम्य) उस राजा को प्रणाम कर (नानापुष्पफलानि) अनेक प्रकार के पुष्प और सुपश्व फलों को (उच्चे: अग्रे धत्त्वा) भक्तिपूर्वक आगे रखकर अर्पणकर (विज्ञप्तो) सूचना दी कि (विस्तीर्णे) विशाल (विपुला चले) विपुलाचल नामक पर्वत पर (देव देवेन्द्रवन्दितः) देव और इन्द्रों से वन्दित नमस्कृत (पुङ्गव) श्रेष्ठ (जिन) जिनेन्द्र प्रभु (वर्द्धमान) श्री महावीर प्रभु (समायातः) पधारे हैं । ___ भावार्थ-नाना वैभव से समन्वित महाराज श्रेणिक सभा में विराजे । उसी समय वनपाल-उद्यान का रक्षक माली प्राया। विनयपूर्वक राजा को हाथ जोड़कर, शिर झुकाकर नमस्कार कर उसने सब ऋतुओं के फल फूलों को राजा के समक्ष भेंट कर कहा-हे प्रभो ! विपुलाचन पर्वत पर देव, इन्द्र नागेन्द्रादि से पूजनीय, वन्दनीय जगदीश्वर श्री महावीर स्वामी का समवशरण पाया है। वे प्रभु महान हैं, सुरासुर नराधीशों से अर्चनीय हैं । चारों ओर ग्रानन्द और जय जय नाद गंज रहा है । समस्त उद्यान मानों हर्ष से रोमाञ्चित हो गया है ।।१२॥ यस्य प्रभावतो राजन् सर्वजातिवनस्पतिः । सर्वतु फलपुष्पौद्यः विरेजे वनिता यथा ॥३॥ अन्वयाथ -- (राजन) हे नराधीश! (यस्य प्रभावत:) जिन वीरप्रभ के प्रभाव से (सर्वजातिवनस्पति:) सर्व जाति के पेड़ पौधे (सर्व फलपुष्पौध :) सर्वकालीन फल फूलों से (विरेजे) शोभायमान हैं (यथा) जो ऐसे मालूम होते हैं मानो (बनिता) सुन्दर नवोढ़ा, अलंकृता कोई रमणी ही हो । भावार्थ- विपुलाचल पर्वत पर श्री महावीर भगवान के पदार्पण से सूखे मुरझाये हए पेड़ पौध भी हरे भरे और फल फलों से भर गये हैं। सब में मानो नव जीवन और नव यौवन का संचार हो गया हो । यद्यपि वनस्पतियों के फलने फलने का अपना अपना निश्चित काल है। योग्य काल ना ऋतुनों में ही वे फलते हैं किन्तु सर्वज्ञ प्रभ श्री १००८ वीर जिन के सानिध्य से काल का अतिक्रमण कर एक ही साथ फल गये हैं । नाना रङ्गों के अनेक प्रकार के कुसुम स्तवका-गुच्छे हवा के झकोरों से नृत्य कर रहे हैं। सुमधुर सुपक्व फलों की बहार आवाल वृद्धों का मन मोहने लगी है । ऐसा लगता है कि आपका पुण्यांकुर, अपने पूर्ण वैभव से फलित हुआ है । हे नृपाल ! उस उपवन की शोभा अवर्णनीय है । इस प्रकार कहते हुए बनरक्षक ने अनुपम आश्चर्यकारी अनोखे फल फूल श्री श्रेणिक महाराज को भेंट किये । करबद्ध नम्रीभूत वह वनपाल पुनः कहने लगा ।।३।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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