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________________ धोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] प्रतः परं जिनप्रोक्त धर्म शर्माकरो महान् । समाराध्यो मया सत्यं पापं संत्यज्यते ध्रुवम् ॥४८॥ संयम मा गहाण त्वं सतीवन्द शिरोमणे। गुरोः पावं शुभे त्वं मे प्रायश्चित्तं प्रवापय ॥४६।। इत्युक्त सा प्रसन्नाभूत् सती सद्धर्मवत्सला। अहो प्रभो तदा सोऽपि श्रीकान्तः शान्त मानसः ॥५०॥ भक्त्या गत्वा तया सार्थं श्रीमत्या जिनमन्दिरम् । सुन्दरं ध्वजमालाये जिनविम्बर्मनोहरम् ॥५१॥ विपरीत्येत्य भक्त्याशु प्रविश्यान्तमहोत्सवः । पूजयित्वा जिनानुच्चैर्जलाधस्सार वस्तुभिः ॥५२॥ तत्र श्रीचरताख्यं मुनि नत्या जगौ प्रभुः। भो मुने ! पापकर्माहं परित्यज्य जिनोदितम् ॥५३॥ धर्मप्रतानि च स्वामिन कुसङ्गति वशीकृतः । पीड़ाचाऽपि मुनीन्द्राणां कृतमशान भावतः ॥५४॥ त्वं पिता बन्धुरत्रोच्चस्त्वं गुरुस्सर्वतारकः । त्वं सासर्थविद् भव्यः जनपच प्रभाकरः ॥५५॥ येन नश्यन्ति तत्पापं भवेन्मेऽत्रोत्तमा गतिः । तत् किञ्चित् त्वां वतं देहि दण्डं या शुद्धिकारणम ॥५६॥ अन्वयार्थ --(विद्याधर मराधिपः) विद्याधर राजा (सः) वह (भपाल:) नपति (श्रीकान्तः) श्रीकान्त (अपि) भी (ताम् ) उस (शोककुर्वतीम्) शोक करती ही दिखभूरिणाम ) अत्यन्त दु:खिनी (सतीम) सती को (विलोक्य) देखकर (सञ्जगाद) बोला (महादेवि ! ) हे प्रिये ! (कथम् ) कसे (शोकः) शोक (विधीयते) धारण किया है ? (स्वया) तुम्हारे द्वारा (इति) इस प्रकार (साकर्ण्य) सुनकर (सा) वह रानी (कोपिता) कुपित ही (भपतिप्रति ) राजा से (प्राह) बोली। (भो राजन्) हे नृरते ! (गृहवासेन) घर में रहने से (काचित्) कोई भी (आशा) इच्छा (न) नहीं (पूर्यते) पूरी होती है अतः (प्रातरेव) प्रात: काल ही (संयमम ) संयम (संगृहिण्यामि) धारण करूंगी (सर्वे) सम्पूर्ण (भोगाः) भोग (रोगोपमा) रोग समान (पापकारिणाम ) पाप के कारण (त्याज्यन्ते) त्यागे जाते हैं (इत्यादिकम ) आदि बातें (ममाकर्ण्य) सुनकर (तस्या) उसके (मनोगतम ) मन के भावों को (मत्वा) समझकर (राजा) भूग (जगाद) बोला (भो) हे (भायें) प्रियतमा ! (त्वया)
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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