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________________ _३३८] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद (शीघ्रम) शोघ्र ही ( मोचयित्वा ) छ डाकर ( कृपाशुर : ) दयालु वीर श्रीपाल ने (तत्पदम् ) उसके स्थान पर (प्रेषयामास ) भेज दिया (सत्यम ) ठोक ही है ( सन्तः ) सत्पुरुष ( सर्वेषाम | सभी का ( हितम) कल्याण (प्रकुर्वन्ति ) करते हैं । भावार्थ -- उन धोखेबाज प्रपञ्चियों को इस प्रकार अत्यन्त कडी सजा राजा ने घोषित की तो चारों ओर हल्ला-गुल्ला मच गया । हा हा कार होने लगा । राजदरबार गूंज उठा । इस कोलाहल को सुनते ही, कृपालु श्रीपाल ने इसका कारण पूछा। कारण ज्ञात होते हो उसका हृदय दया से श्राप्यायित हो गया । करुरणा की धारा फूट पडी । वह तत्काल ही घातकों के स्थल पर जा पहुँचा । पुनः भूपति के सन्निकट आकर अति याग्रह, विनय और आदर से कहने लगा, "हे! आ यह क्या कर रहे हैं" बाप जानते हैं ? यह धवल मेठ मेरा धर्मपिता है, इसका रक्षण करना मेरा धर्म है और आपका भी कर्तव्य है। आप इन्हें अविलम्ब छोड़ दें । यह ठीक है कि ये अपराघो है आपकी दृष्टि में महा दुर्जन है, फिर अहिसा धर्म का प्राण है । जीवरक्षा धर्मात्मा का प्रमुख कर्त्तव्य है अतः इन सभी निरपराधियों को आप छोड़ दें ।" इस प्रकार आग्रह पूर्वक उन्हें बन्धनमुक्त कराया उस वञ्चक घवल मेठ का शीघ्र ही सम्मानपूर्वक उसके साथियों के साथ उसके निवासस्थान को भेज दिया। नीति है कि "न मध्यमानेऽपि विषायऽमृतम् ।" अमृत को मथे जाने पर भी वह विषरूप नहीं होता, अपितु अपने ही स्वभाव में स्थिर रहता है । इसी प्रकार मनस्वी, उदार चेता, उत्तम मज्जन जन सताये जाने पर भो अपकारी का उपकार है। करते हैं ।। १८८ से १६० ।। एते वद्धाः किमर्थं भो चाण्डालाश्च वराका ये । भणित्वेति च तान् सर्वान्, मोचयित्वा गृहंगतः ।। १६१ ॥ अन्वयार्थ - (च) और ( भो ) हे नृप ( एते ) ये ( वराकाः ) बेचारे ( चाण्डलाः ) चाण्डाल ( किमर्थम् ) किस लिए ( ये ) ये ( बद्धाः ) बन्धन में डाले है । (इति) इस प्रकार ( भणित्वा ) कहकर ( तान् ) उन ( सर्वान् ) सबों को ( मोचयित्वा ) छुड़ा दिया (च) और (गृहम ) स्वयं घर ( गतः ) चला गया ।। १६१॥ भावार्थ - धवलसेठ को विसर्जन कर उसने चाण्डालों को बन्धन बद्ध देखा । उसका हृदय काँप उठा । अरे! राजन् इन बेचारे निरपराधों को क्यों सताते हो ? क्यों बन्धन मे डाला है ? तो नर्तक हैं, जो पैसा दे उसी को ग्राज्ञानुसार स्वांग रचते हैं। पेट के लिए वेचारे घर-घर दर-दर भटकते रहते हैं । दया के पात्र हैं। इस प्रकार कहकर उन सबको बन्धन मुक्त कर दिया। ठीक ही है "उन्नतं मानसं यस्य यशस्तस्य समुज्जवलम् ।" जिसका मन हृदय विशाल होता है उसका यश-कीर्तिलता गगनचुम्बी विस्तृत हो जाती है। इस उदार और करुणापूर्ण व्यवहार से श्रीपाल की यशवल्लरी ग्राकाश में लहराने लगी २११६१।१ ततो दिने द्वितीयेस श्रीपालोऽति दयान्वितः । धवल श्रेष्ठिनं दुष्टमामन्त्रय सपरिच्छदैः ।। १६२ ॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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