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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
स्वगृहे विनयेनोच्चग्ने भोजयितुं मुदा । स्वयं च व्यजनेनोच्चश्चकारपवतं द्रुतम् ॥ १६३॥ वीक्ष्य तेन कृतां भक्त महतीं धवल मृतः । निहत्य स्वयमात्मानं तत्कालार्जित पापतः ॥ १६४॥ ततोऽ' त पाप पाकेन रौद्रध्यानेन पापधीः । सर्वदुःखाकरीभूतं सोऽगमत् नरकं वणिक् ॥ १६५॥
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प्रन्ययार्थ - ( ततः ) सबको बन्धन मुक्त कर ( द्वितीये) दूसरे (दिने ) दिन (अति) अत्यन्त ( दयान्वितः ) दयालु ( स ) उस ( श्रीपाल : ) श्रीपाल ने ( सपरिच्छदः) साथियों व परिवार सहित (दुष्टम् ) क्रूर ( धवल श्रेष्ठिनम् ) धवलसेठ को ( श्रामन्त्रय ) ग्रामन्त्रित करके (स्वगृद्दे) अपने घर पर ( विनयेन ) विनय पूर्वक (उच्च) अतिमान से ( भोजयितु' ) भोजन कराने के लिए (लग्ने) तैयार होने पर ( मुदा ) प्रसन्न हो (स्वयम् ) अपने आप (व्यजनेन ) पंखे से (उच्च) विशेष रूप से (च ) और (द्र तम ) वेग से ( पवनम् ) हवा ( चकार ) करने लगा, ( तेन ) श्रीगल द्वारा (कृताम् ) की गई ( महतीभ) महान ( भक्तिम् ) भक्ति को ( वीक्ष्य ) देखकर (घवलः) घवल सेठ ( प्रजित ) संचित (पापतः ) पाप से ( तत्काल ) उसी समय (स्वयम् ) अपने आप ( श्रात्मानम ) आत्मा को ( निहत्य) नाशकर ( मृतः ) मर गया (ततः) इसलिए (पापधोः) दुर्बुद्धि पापो ( प्रति) अत्यन्त ( पापपाकेन ) पापोदय से (रोद्रध्यानेन व्यान द्वारा (सर्वदुःखाकरीभूतम) सर्वप्रकार के दुःखों को करने वाले ( नरकम् ) नरक को (सः) वह ( वणिक् ) वैश्य धवल ( आगमत् ) चला गया ।
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भाषार्थ - उदार चेता, कर्त्तव्यनिष्ठ कोटीभट श्रीपाल ने दूसरे दिन धवल सेठ को निमन्त्रण दिया । उसके साथी-संगी स्वजन परजन सभी को भोजन का आमन्त्रण दिया । प्रीतिभोज को महामोद से बुलाया । कितनी विचित्र बात है एक ओर महा र पापी दुराचारी और दूसरी ओर परम दयालु, नीतिज्ञ, विनयी ? अधर्म और धर्म जा सामंजस्य भला कैसे हो ? हुआ क्या ? श्रीपाल राजा ने नाना प्रकार सुन्दर, सुस्वादु शुद्ध व्यञ्जन तैयार कराये । अत्यन्त अनुराग से सेठ को सपरिवार बुलाया, उच्च श्रासन दिया। प्रेमालाप किया । पुनः यथायोग्य स्थान पर भोजन कराने को ले गया । शान्ति से बिठाया ! भोजन करने लगा । स्वयं श्रीपाल महाराज पंखा लेकर तेजी से हवा करने लगा । पिता तुल्य वृद्ध वणिक राजा को किसी प्रकार आकुलता न हो इस प्रकार की सेवा में तत्पर हुआ । परन्तु हुआ क्या श्रीपाल के इस विनम्र व्यवहार' भक्तिसंचार से पापी धवल सेठ का हाल-बेहाल हो गया । ठीक ही है सूर्य को देखकर सारी प्रकृति प्रफुल्ल हो जाती है परन्तु उल्लू आँखें बन्द कर छप जाता है । अपने कुकर्म से उपार्जित पाप से अभिभूत हुया धवल सेठ स्वयं ही श्रात्मघात कर या मानसिक असह्य वेदना से अभिभूत हुआ सदा के लिए छप गया। अर्थात् मरण को प्राप्त हो गया । हिंसानन्दी ध्यान के फलस्वरूप पप बुद्धि असंख्य दुःखों का स्थान घार नरक में जा पड़ा। कमों
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