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[थोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद अन्वयार्थ--(चार) सुन्दर, सौम्य (मनोहराः) बीतरागछवियुक्त (रत्नस्वर्णमयी) रत्नों की व सुवर्ण को (प्रतिमा) जिनविम्ब कराकर (च) और पुनः (शास्त्रयुक्तित:) शास्त्रोक्त प्रतिष्ठा विधि से (तत्प्रतिष्ठा) उनकी प्रतिष्ठा (महती) विशेषरूप से उत्सव पूर्वक (प्रकर्त्तव्या) करनी चाहिए।
भावार्थ-प्राचार्य श्री इस महापर्व में किये जाने वाले महान सिद्धचक्र विधान का उत्तम, मध्यम, जघन्य काल भेद से भेद बतलाते हैं । उत्कृष्ट समय बारह वर्ष तक प्रतिवा तीन-तीन बार नन्दीश्वर पर्व में उपर्युक्त विधि से करे । यह सर्वोत्तम फल को प्रदान करता है। शक्ति और भक्ति पूर्वक करना चाहिए । मध्यम छह वर्ष और जघन्य तीन वर्ष पर्यन्त करना चाहिए । यत पूर्ण होने पर यथायोग्य उत्तम विधि से पाक्तिपूर्वक सम्पादन करे । परमागम में उद्यापन की विधि इस प्रकार बतलाई है कि अत्यन्त उन्नत, मनोहर, भव्यों को मनोनयन आनन्दकर जिनालय निर्माण कराये । ध्वजा, कलश, माला, तोरणादि से उसे सुसज्जित करावे । जो वास्तव में सुख और शान्ति का निलय हो । भन्यजनों के दुःख दैन्य, ताप को हरने वाला हो । पुन: उसमें सुरम्य वेदी निर्माण करावे । रत्नों, सुवरणों के जिनबिम्ब बनवावें । जा सौम्य, चित्ताकर्षक, प्रागमोक्त विधि से वीतरागता की झलक से शोभित हों। तदनन्तर धूमधाम से पञ्चकल्याणक महाप्रतिष्ठा अत्यन्त वैभव से कराना चाहिए । आगमानुसार पञ्चकल्याण प्रतिष्ठा द्वारा अनादि मिय्यादष्टि का भी सम्यक्त्व लाभ हो सकता है । अतएव इस रीति से विधि विधान, दान सम्मान करना चाहिए कि मिथ्यात्वी लोग प्रशंसा करें, आश्चर्य कित हों और जैनधर्म के वैशिष्टय प्रभावित हो दर्शनमोह को वान्त कर सम्यक्त्व रस का पान करने में समर्थ हों जायें । वाह्य प्रभावना अङ्ग है यह, जो अन्तरङ्ग आत्म प्रभावना का समर्थ निमित्त कारण है |१८६६०॥
चतुर्विध महासड्.धै निमान शतैरपि । प्रतिष्ठान्ते जिनेन्द्राणां सारपञ्चामृतोत्करः ॥११॥ कृत्वा महाभिषेकश्च देयं दानं जगद्वितम् ।
चन्दनागरुकाश्मीरं स्थापयेच्च श्रीजिनालये ।।१२।। अन्वयार्थ--(प्रतिष्ठान्ते) प्रतिष्ठाकार्य होने पर (दान मानप्रतैः) सैंकडों दान सम्मान पूर्वक (चतुविधमहासङ्घः) मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका सहित (जिनेन्द्रारशाम् ) श्री जिन प्रतिमाओं का (सारपञ्चामृतोत्करः) उत्तम पञ्चामृतरसों मे (जाद्धितम् ) संसार हितकर (महाभिषेकम् ) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (च) और (चन्दनागरुकाश्मीरम ) चन्दन, अगुरु, काश्मीरादि (स्थापयेत) स्थापित करे (अपि) पुनरपि (श्रीजिनालये) श्री जिनमन्दिर में (दानम् ) दान (देयम् ) देना चाहिए ।।६१, ६२।।
भावार्थ -अपार प्रभावना ओर याश्चर्यचकित करने वाली प्रतिष्ठा विधि समाप्त हो जाने पर पुनः मुनि, आयिका श्राविका, थाइक चतुर्विधमय की उपस्थिति में नानाविध दान सम्मान पूर्वक श्री जिन बिम्बों का सुन्दर शुद्ध उत्तम महापञ्चामृत रसों-दुध, दही, घी,