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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
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अन्वयार्थ (यत्र) जहाँ (रत्नतोरण संयुताः) रत्नमय तोरण युक्त द्वारवाले (धीमज्जिनेन्द्राणां प्रासादाः) जिनालय (प्रविरेजिरे) सुशोभित हैं जो मानों (स्वर्गापवर्गमार्गा वा) स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग रूप हैं।
भावार्थ-स्वर्गलोक. जिन भवन के समान अनुपम छवि को धारण करने वाले, ध्वजा, कलम, तोरण युक्त द्वारों से युक्त वे भवन ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों स्वर्ग और मोक्ष में जाने के लिये श्रेष्ठ मार्ग निर्मित किये गये हैं। जिनायतन, जिनबिम्ब, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में हेतु हैं अत: यहाँ भव्य जिनालयों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग स्वरूप कहा गया है ।।४७।।
यत्पुरं सर्वदा सर्वेर्धनैर्धान्यजनोत्करैः ।
नानावस्तुशतैः पूर्ण भरिणमुक्ताफलादिभिः ॥४८॥
अन्वयार्थ (सर्वेः धनैः धान्यः) सभी प्रकार के धन धान्यों से (जनोत्कर) जनसमूहों से (नानावस्तुशतैः) अनेक प्रकार के सुन्दर सैकड़ों पदार्थों से (मणिमुक्ता फलादिभिः) मणिमुक्ता फलादि से (यत् पुरं) जो राजगृह नगरी (सर्वदा) सदाकाल (पूर्ण) भरी रहती
भावार्थ-उस राज गृह नगर में रहने वाले नागरिक धन-धान्य, मणि-मुक्ता फलादि तथा श्रेष्ठ बन्धु बान्धवों से युक्त सर्वतः सुखो और सम्पन्न हैं ।।४।।
भव्यानां पुण्यतो नित्यं चारुपञ्चेन्द्रियोचितैः ।
भोगोपभोगसन्दोहैः संजातं पुण्यपत्तनम् ॥४६।। अन्वयार्थ (नित्यं पुण्यतो) निरन्तर पुण्य कार्य करते रहने से (चारु-पञ्चेन्द्रियोचितैः) पञ्चेन्द्रियों के विषय भूत योग्य उत्तम पदार्थों और (भोगोपभोगसन्दोहै:) भोगोपभोग के समस्त पदार्थों से युक्त (पुण्यपत्तनं) पुण्यशाली नगर को (भव्यानां संजातम् ) भव्य जीवों का जन्म होता है।
मावार्थ-वह राजगृह नगरी भोगोपभोग के समस्त उत्तम बस्तुओं से भरी पूरी थी। उस पुण्यमय देश में जन्म की प्राप्ति का होना भी पुण्य का फल है (जैसाकि प्रात्मानुशासन में गुणभद्राचार्य ने लिखा है
धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थ सौख्यानि ।
संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युच्चिनुयैस्तैरूपायैस्त्वम् ।।१६ प्रात्मानुशासन०।।
अर्थात् इन्द्रिय विषयों के रोवन से उत्पन्न होने वाले सब सूख इस धर्म रूपी उद्यान में स्थित वृक्षों के फल हैं । इसलिये हे भव्य जीव ! तू जिन किन्हीं उपायों से उन धर्म रूपी उद्यान के वृक्षों की भले प्रकार रक्षा कर उनसे इन्द्रिय विषय जन्य सुख रूपी फलों का संचय कर।