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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ]
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श्रेष्ठ सेवकों से (परिवारितः ) परिवृत ( घीवनः ) बुद्धिमान श्रीपाल ( चक्रवर्ती दव) चक्रवर्ती के समान शोभता था । ( अश्वपादाहत ) घोड़ों के पैरो से क्षत विक्षत ( क्षोणिरजोभिः ) भूमि के रजकणों से (नभःछादयन् ) ग्राकाशमण्डल को ढकता हुआ तथा ( प्रतापनिजिताराति) प्रताप अर्थात् अपने शौर्यवीर्य से शत्रुओं को जीतने वाला वह श्रेणिक (दिवाकरवा ) अन्धकार को सर्वथा नष्ट कर देने वाले सूर्य के समान प्रतीत होता था ।
भावार्थ-अपनी नगरी चम्पापुरी की तरफ प्रस्थान करते समय विशाल परिकरों से चिरे हुए श्रेणिक महाराज ऐसे शोभते थे मानो चक्रवर्ती हो दिग्विजय के लिये प्रस्थान कर रहा हो । सुन्दर वस्त्राभरणों से अलंकृत देवाओं के सेनायें अर्थात् स्त्रियों से वे परिमण्डित थे । तथा श्रेष्ठ सेवकों से घिरे हुए और सेकड़ों हाथी, घोड़े, रथ और पादाति सेना से सहित युद्ध के लिये जाते हुए वे अणिक महाराज ऐसे प्रतीत होते थे मानो साक्षात चक्रवर्ती ही हो । उस समय दौड़ते हुए घोड़ों के पैरों से क्षत विक्षत भूमि के रज कणों से पूरा आकाश मण्डल व्याप्त हो रहा था तथा अपने शौर्य वीर्य से समस्त शत्रुनों को जीतते हुए श्रेणिक महाराज आगे बढ़ते हुए, सूर्य के समान प्रभावशाली दीखते थे। जैसे सूर्योदय होते हो अन्धकार दूर हो जाता है वैसे ही उनके तेज और प्रताप को देखते हो बलिष्ठ शत्रु भी शत्रुता छोड़ देते थे तथा चरणों में झुके हुए श्रीपाल महाराज की सेवा में सदा तेयार रहते थे । १० से १२ ।
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तदा भूमिश्चचालोकचे सैन्य संदोहमर्दनात् । कम्पमाना च भीत्येव ससमुद्रा सपर्वता ॥ १३॥
अन्वयार्थ -- (तथा) उस समय ( उच्चैः सन्यसंदोहमर्दनात् ) विशाल सैन्यबल वा सेना समूह के पैरो के मर्दन मे (भूमिः चचालो ) पृथ्वी हिलने लगी । ( ससमुद्र सपर्वता) समुद्र और पर्वतों से सहित (कम्पमाना) कांपती हुई वह पृथ्वी भी ( भीत्येव ) भयभीत ही हो गई थी ।
भावार्थ ---- जब श्रीपाल महाराज अपनी चम्पा नगरी को जा रहे थे तब उनकी विशाल सेना के पैरों के मर्दन से समुद्र और पर्वतों से सहित पृथ्वी भी कांपने लगी मानो वह भी उनके पराक्रम से डर गई थीं। इस प्रकार का उनका पराक्रम लोक में अभूतपूर्व था ।। १३ ।
क्रमेण साधयन् देशान् नामयंस्तत् प्रभम्बहून् । संग्रहन् साररत्नानि नानावस्तुशतानि च ॥ १४ ॥
अन्वयार्थ -- ( क्रमेण ) क्रम से एक के बाद एक ( देशान् साधयन् ) राज्यों की जीतते
हुए (तत्) तद् स्थानीय ( बहून् प्रभून् ) बहुत राजाओं को (नामयन् ) झुकाते हुए अर्थात् अपना सेवक बनाते हुए (च साररत्नानि ) और सारभूत रहनादि (नाना ) अनेक प्रकार की ( वस्तुशतानि ) कड़ों वस्तुओं का संग्रह) संग्रह करता हुआ वह श्रीमान् श्रीपाल आगे बढ़ता गया || १४ || जिनेन्द्रसदनाद्युद्यद् वाद्यध्वनाति मंगलाम् । सोधप्रासादसत्केतुमालाभिस्तजितांवित्रम् ॥ १५॥