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________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] अथैकदा सुता सा च सुधीर्मदनसुन्दरी । कृत्वा पञ्चामृतःस्नानं जिनानां सुखकोटिदम् ॥८॥ पूजां विधाय सद्वस्तु संदोहैस्सुजलादिभिः । तत्सदगंधोदकं पित्रे ददौ परम पावनम् ॥८॥ अन्वयार्थ - (अर्थकदा) इसके बाद एक समय (सा) वह (सुधी) बुद्धिमती (मदनसुन्दरी सुता) मदन मुन्दरी लघु राजपुत्री (सुख कोटिदम्) करोड़ों सुखों को देने वाले (जिनानाम् ) जिनबिम्बों का (पञ्चामृतों द्वारा स्नान) अभिषेक (कृत्वा करके (च) और (मजलादिभि) पवित्र जल, चन्दन, अक्षतादि अष्ट द्रव्यों से (सद्वस्तुसंदोहै। अनेक उत्तम पूजा योग्य द्रव्यों से (पूजाम् ) जिनपूजा (विधाय) करके (परम पावन) महान पवित्र (तत्) उस सद्गन्धोदकम् ) उत्तम गन्धोदक को (पित्रे) पिता जी के लिए (ददी) प्रदान किया। भावार्थ-मुरसुन्दरी के विवाह पश्चात् राजा निराकुल था । एक दिन लघु पुत्री बुद्धिमती मदनसुन्दरी जिनालय में गई। वहाँ उसने बड़ी भक्ति से प्रथम । श्री जिनेन्द्र भगवान् का द्रव्य शुद्ध पञ्चामृतो-दूध, दही, घृत, इक्षुग्स और सवाषांध से क्रमश: अभिषेक किया, चन्दनलेपन, पुष्पवृष्टिकर आरती उतारी । पुनः शुद्ध गन्ध से अभिषेक किया। तदनन्तर श्री जिनेन्द्र भगवान् की नाना प्रकार के शुभ, सुन्दर द्रव्यों से अष्टविधि अर्चना की। भक्ति और आनन्द से भरी बह बाला गन्धोदक लेकर आई और अपने पुज्य पिता जी को लगाने के लिए ले गई । कन्या मदनसुन्दरी ने स्वयं अभिषेक किया । पञ्चामतों से किया और विधिवत् जिन पूजा की इससे स्पष्ट है कि नारियों को भी पुरुषों के समान ही अभिषेक पूजा करने का अधिकार है, उनका भी जिन शासन में समान रूप से श्राविका धर्म विधान है । हाँ शरीर, वस्त्र, द्रव्य, और भात्र शुद्धि होना अनिवार्य है। जिस समय बिदुषी रत्न वह मदनसुन्दरी गन्धोदक लेकर आयी उस समय राज दरबार में राजा थे । अत: बहीं राजसभा में ही लेकर आई थी। देखिये ||१|| प्रजापालप्रभुस्तत्र सभायां परमादरात् । वन्दित्वा तत्समादाय चकार निजपस्तके ॥२॥ अन्वयार्थ --(तत्रसभायाम्) उस सभा में (प्रजापाल प्रभुः) महाराजा प्रजापाल ने (तत्समादाय) उस कन्या प्रदत्त गन्धोदक को (परमादरात) परम आदर विनय भाव से (बन्दित्वा) नमस्कार कर (निजमस्तके) अपने शिर पर (चकार) चढ़ाया। अर्थात लगाया । विशेषार्थ--मदनसुन्दरी ने गन्धोदक लाकर अपने पिता को दिया। राजा प्रजापाल उस समय सभा में विराजमान थे । राजा ने परमभक्ति से उसे लिया और नमस्कार कर उस परम पवित्र गन्धोदक को अपने उत्तमाङ्गः मस्तक पर क्षेपण किया ।।२।। तां विलोक्यसुतां शान्तां नवयौवनमाश्रिताम् । कोमलाङ्गी सुरुपायां, करपल्लव शोभिताम् ॥५३॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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