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________________ ११२] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद पिता ने कहा बेटी ! तुम अपनी इच्छानुसार जिस राजकुमार के साथ विवाह करना चाहती हो ? बतलाओ इच्छा पूर्ण करूंगा ||३६|| सुरादि सुन्दरी प्राह भो राजन् देहि मां त्वकम् 1 अहिच्छत्र पुराधीश पुत्राय गुणशालिने || ७७ ॥ श्रर्यादिदमनायोच्चैः कामभोग सुखार्थिने । तत्समाकर्ण्य भूपोऽपि शुभलग्ने शुभेदिने ॥ ७८ ॥ विवाह विधिना तस्मै तदिदौ सुरसुन्दरीम् । विभूत्या सोऽपि तां लात्वा गतोरिदमनोगृहम् ॥७६॥ अन्वयार्थ - (सुरादि सुन्दरी) सुरसुन्दरी राजपुत्री ( प्राह ) बोली ( भोराजन् ) हे राजन पितृवर ( मां) मुझको (स्वम्) तुम (गुणशालिने) गुणवान ( कामभोग सुखाथिने ) काम भोग सुख के अभिलाषी (अहिच्छत्रपुराधीशपुत्राथ ) अहिच्छत्र के राजपुत्र (अर्यादिदमनाय ) अरिदमन के लिये ( उच्चैः ) विशेष आनन्द से ( देहि ) प्रदान करो । ( तत् समाकर्ण्य ) उस कथन को सुनकर (भूपोऽपि ) राजा ने भी ( शुभेदिने) शुभ दिन में ( शुभलग्ने ) शुभलग्न में (ताम् ) उस कन्या को ( लात्वा) लाकर ( विवाह विधिना ) विवाह की पद्धति के विधि-विधान पूर्वक ( विभूत्या) प्रति वैभव के साथ ( सुरसुन्दरीम् ) सुर सुन्दरी को ( तस्मै ) उस अरिदमन को ( ददौ ) प्रदान कर दिया । ( सोऽपि ) वह अरिदमन भी उसके साथ (गृह्यगत: ) अपने घर चला गया । भावार्थ सुरसुन्दरी ने कहा यरिदमन अत्यन्त कमिच्द्र है भोगाभिलाषी है अतः उसके साथ मनवाञ्छित विषय भोग प्राप्त हो सकेंगे यह सब श्रवण कर उस प्रजापाल ने यायोग्य यथोचित पुरोहितों से शुभ दिन और शुभ लग्न निश्चित की तथा अपार वैभव विभूति और मङ्गलोपचार पूर्वक उसके साथ वादित्रादि पूर्वक विवाह कर दिया । वह अरिदमन भी सानन्द पाणिग्रहण कर अपने घर चला गया। यद्यपि सुर सुन्दरी वस्तुतः देवाङ्गना स रूप सौन्दर्य की खान थी परन्तु उसकी शिक्षा कुगुरु के सान्निध्य में होने से विवेक विहीन थी । कुलीन कन्याएँ माता पिता के आदेशानुसार गार्हस्थ्य जीवन में प्रविष्ट होती हैं, परन्तु उसने स्वयं ही पति निर्वाचन किया। यह भारतीय संस्कृति के विपरीत प्रतीत होता है। इसका कारण कुसङ्गति है । कुविद्या का परिणाम भयङ्कर ही होता है । मिथ्यावेदादि का अध्ययन करने से वह ज्ञानमद से उन्मत्त तो थी ही श्रविवेक और यौवन भी श्रा मिला फिर क्यों न विपरीत होता ? होता ही ।।७७, ७८, ७६॥ श्रन्वयार्थ- सुरसुन्दरी के विवाह के पश्चात् राजा प्रजापाल सुख से राज्य करने लगा। एक दिन आनन्द से सभा में सिंहासन पर श्रारूढ़ राजा विराजमान था उसी समय
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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