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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद] के सानिध्य में अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनका तो कहना ही क्या है ? वस्तुत: कल्पन्नता के समान सत्सङ्गति महान उत्तम सुखरूपी फलों को प्रदान करती है। निरन्तर रहने वाले स्थायी सुख को देती है । भव्य प्राणियों को सतत साधुसन्तों के समागम में ही रहना चाहिए । अात्महितेच्छरों को साधुओं के मुखारविन्द रो प्राप्त सदुपदेश संजीवनी बूटी या अमृत है। जिसे पाते ही संसार रोग-जन्म मरण बुढ़ापे के दुःखों का सर्वथा नाश होता हैं और भारत की प्राप्ति हो जाती है ।। ७४ ।। कहते हैं कि
जाधियो हरति सिंचति यातिसत्यम् मानोन्नति दिति पापमपा करोति । चेतः प्रसादयतिदिक्षुतनोति कीर्तिम
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुसाम् ॥७॥
अन्वयार्थ----सत्सङ्गतिः क्या करती है (जाड्यधियो) जड़ बुद्धि को (हरति) नष्ट करती है। (सत्यम्) सत्यगुण को (सिंचति) सींचती है, बृद्धिगत करती हैं (याति च) और प्राप्त कराती है (मानोन्नति) आत्माभिमान को (दिशति) प्रकट करती है (पापम् ) पाप को दुष्कर्मों को (अपा करोति) दूर करती है (चेतः) चित्त को (प्रसादयति ) प्रसन्न करती है । दिवा) सर्व दिशाओं में (कीतिम्) यश को (तनोति) विस्तृत करती हैं (कथय) कहिये या क्या कहे (पुसाम्) पुरुषों को (सत्सङ्गति) सज्जन जन समागम (किं न करोति । क्या नहीं करता ? अर्थात् सब कुछ अच्छा ही करता है ।
भावार्य -जो साधु-सन्तों की सङ्गति में रहता है उसे सर्व प्रकार से जीवन विकास का अवसर प्राप्त होता है । उभय लोक की सिद्धि सरलता से हो जाती है । आत्मसिद्धि सदाचार और शिष्टाचार का साधन मूलतः सत्सङ्गति ही है ।।७५।।
एकदा यौवनंप्राप्तां ज्येष्ठकन्यांविलोक्य च ।
राजा जगाद भो पुत्रि वरं प्रार्थय वाञ्छित्तम् ।।७।। अन्वयार्थ .. (एकदा) एक समय (यौवनंप्राप्ताम् ) यौवन अवस्था को प्राप्त हुयो (ज्येष्ठकन्या) बड़ी पुत्री को (च) और (विलोक्य) देखकर (राजा) राजा प्रजापाल (जगाद) बोला (भोपुत्रि) हे बेटी (बाञ्छितम) इच्छित (वर) वर (प्रार्थय) प्रार्थना करो। याचो।
भावार्थ - राजा प्रजापाल ने अपनी बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी को देखा । वह विचारने लगा मेरी कन्या युवती हो गई है। यह विवाह के योग्य हो चुकी है। इसका योग्य वर से विवाह करना चाहिए । किसके साथ विवाह किया जाय ? यह प्रश्न आते ही सोचा कन्या की इच्छानुसार बर खोजना उचित होगा । वस क्या था ? एक दिन उस सुन्दरी को देख कर