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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०१ पति के ( शुभम् ) कल्याणप्रद ( आख्यानकम् ) चरित्र को ( समाकर्ण्य ) भले प्रकार सुनकर ( तथा निदान) विश्वास ( समासाद्य ) पाकर (सा) वह ( मदनसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ( तुष्टा ) संतुष्ट हुयी । भावार्थ अपनी सास के मुख से पति का चरित्र सुना । यथार्थ उत्तम, कुल, वंश, जाति ज्ञात कर उस मैंनासुन्दरी को अत्यन्त हर्ष हुआ। अपने भाग्य की सराहना की। अनुकूल क्षत्रियवंशी राजा पति पाकर क्यों न पुलकित होती ॥१५७॥ --- अथैकदा प्रजापालो वन क्रीडां महीपतिः । कृत्वा गृहं समागच्छन् पुरवा मनोहरे ।। १५८॥ प्रासादोपरिभूमौ च तदा श्रीपाल मुत्तमम् । तया सार्द्ध समालोक्य, कामदेव समाकृतिम् ।। १५६ ।। तज्जाशंकयाचित् स्वस्य वक्तुमधोमुखम् । कृत्वा संचिन्तयामास हा कीवान्वेन पापिना ।।१६०॥ श्रन्वयार्थ - - ( अथ ) इसके बाद (एकदा) एक समय ( पुरवाह्य) नगर के बाहर ( मनोहरे) मनमोहक स्थान में ( गृहम ) घर ( कृत्वा) बनवाकर ( महीपाल : ) महीपाल ( महीपतिः) नृपति ( वनक्रीडाम् ) वनक्रीडा को (समागच्छन् ) आते हुए (प्रासादोपरिभूमी) महल की छत पर ( तदा ) तब उसने ( तया सार्द्धम् ) उस मदनसुन्दरी के साथ ( कामदेवसमाकृतिम् ) कामदेव के समान सुन्दराकृति वाले ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ (श्रीपाल च ) श्रीपाल को ( समालोक्य ) देखकर (च) और (तत्) उसे (जार) व्यभिचारिणी की ( शंकया) शङ्का से ( स्वस्य चित्ते ) अपने मन में ( वक्तुम् ) कहता हुआ (अधोमुखम् ) नीचामुख (कृत्वा ) करके (हा ) हाय, ( क्रोधान्धेन ) क्रोध से अन्धा ( पालना) मुझ पापो ने (किं कृतम् ) क्या किया (इति) इस प्रकार ( चिन्तयामास ) चिन्तवन करने लगा । भावार्थ वह कथा वहीं छोड़कर अब आचार्य श्री मैनासुन्दरी के पिता का हाल बतलाते हैं । पुत्री का प्रयोग्यपति के साथ सम्बन्ध कर पश्चात्ताप से पीडित हुआ। एक दिन वनक्रीडा का विचार किया । उद्यान में गृह निर्माण कराकर नगर के वाह्योद्यान में प्राते हुए उसकी दृष्टि महल की छत पर गई। वहीं अपनी पुत्री को श्रद्धत कामदेव समान सुन्दराकृति श्रीपाल के साथ बैठा देखा । उसका हृदय अपने ही अपराध से पीडित हो उठा। अपने मन में उसने उसे ( पुत्री की) जार-व्यभिचारी के साथ समझ कर अधोमुख हो गया और मन ही मन सोचने लगा कि मैंने कोध से अन्धा होकर यह महा अनर्थ कर डाला। मुझ पापी द्वारा यह क्या कर दिया गया ।" अर्थात् कुष्ठों के साथ विवाह किया इसीलिए यह दुराचारिणी हो गई है। ऐसी प्राशङ्का से महा दुखी हुआ ।। १५८, १५४, १६०।। C कुष्ठिने स्वसुता दत्ता मया विगत चेतसा । कन्यया सत्कुलं नष्टं मदीयं यशसा समम् ॥१६१॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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