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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ-(विगतचेप्तसा) नष्ट बुद्धि (मया) मेरे द्वारा (स्व) अपनी (सुता) पुत्री (कृष्ठिने) कुष्ठी की (दत्ता) दी गयी अतः (कम्यया) इस कन्या मदनसुन्दरी द्वारा (यशसा) कीति के (सभम् ) साथ (मदीयम्) मेरा (सरकुलम् ) थोष्ठतुल (नष्टम् ) नष्ट कर दिया गया।
भावार्थ--राजा महीपाल सन्देह के झूले में झूलने लगा। आशङ्का से बह विचार शुन्य हो गया । विपरीत ही विचार कर रहा है और साथ ही अपनी दुबुद्धि पर पश्चात्ताप भी करता जा रहा है मन ही मन । वह सोच रहा है, हाय, मैं महा दुर्यु द्धि हूँ। मैंने स्वयं अनर्थ किया कि अपनी सुन्दरी कन्या को भयङ्कर कुष्ठी के माथ विवाह कर दिया । उसी का फल है कि आज यह किसी रूपवान परपुरुष के साथ बैठो है । महा दुःख है कि इसने मेरे यण के साथ-साथ समूज्ज्वल कुल को भी कलडित कर दिया । नष्ट कर दिया। ठीक ही है कन्या सुशील, पतिव्रता होती है तो अभयकुल समुज्ज्वल हो जाता है और कुलटाकन्या हुयी तो जाति, कुल वंश सभी कलङ्कित हो जाता है । पुत्र की अपेक्षा भी कन्या को शिक्षित और योग्य बनाना अत्यन्त आवश्यक है ।।१६।
तदातं मानसं मत्वा कन्याया मातुलो महान् । सञ्जगाद प्रभो कस्माल्लज्जितं च त्वयाधुना ॥१६२।।
अन्वयार्थ-- (सदा) तव (तं) उस राजा के (मानस) मानसिक भाव को (मत्वा) समझकर (कन्यायाः) कन्या का (मातुलो) मामा (महान्) विचारज्ञ (सञ्जगाद) बोला (प्रभो) हे स्वामिन् (त्वया) अाप (अधुना) इस समय (कस्मात्) किसलिए (लज्जितम्) लज्जित हुए हैं ? (च) और
मावार्थ- राजा को चिन्तित और लज्जित ज्ञात कर मैनासुन्दरी का विद्वान् मामा कहने लगा, हे राजन् पाप आज किसलिए दुखी हैं, किससे लज्जित हो रहे हैं ? तब व्यथिन राजा कहने लगा---
प्रभुः प्राह सदुःखेन विनष्टाफन्यका किल ।
मातुलोऽपिजगी राजन्नैवं हि कदाचन ॥१६३॥
अन्वयाथ-- (सदुःखेन) खेदभरा (प्रभुः) राजामहीपाल (प्राह) कहने लगा (किल) निश्चय से (कायका) कन्या (विनष्टा) नष्ट हो गई (मातुलोऽपि) मामा भी (जगी) ब्रोला (राजन् ) हे नृप ! (एवं) इस प्रकार (कदाचन) कभी भी (न) नहीं (ब्र हि) कहना।।
भावार्थ - "वक्त्रं वक्ति हि मानसम्" इस युक्ति के अनुसार राजा के म्लान मुख से अन्तपीडा को अवगत कर मैना का मामा राजा से उदासी का कारण पूछता है । तव राजा उत्तर देता है कि हे भाई, निश्चम से मेरा दुःख महान है, इस कन्या ने जीवन नष्ट कर लिया। यह नकर मामा बोला, राजन् इस प्रकार कभी भी नहीं कहना ॥१६३।।