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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[ २०३ तेजस्ते शीलनिर्मुक्तं संभवेन्नैव भूतले ।
किन्त्वाभ्यां सिद्धचक्रस्य विहित पूजन विभो ।।१६४॥ ___ अन्वयार्थ हे भूपाल ! (ते) तुम्हारा (तेज) अंश-संतान (भूतले) पृथ्वी पर (शील निमुक्तम् ) शीलाचार रहित (म) नहीं (एव) ही (सम्भवेत्) संभव हो सकता है (किन्तु) किन्तु (प्राभ्याम् ) इसके द्वारा (विभो) हे राजन् (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र (पूजनम् ) पूजा (विहितम् ) की गई ।
तेन पुण्येन जातोऽयं श्रीपालो व्याधि जितः ।
कन्येयं श्रीजिनेन्द्रोक्तधर्मदुमलतोपमा ॥१६५॥
अन्वयार्थ (तेन) उस (पुण्येन) पूजा के पुण्य से (अयम् ) यह (श्रीपालो) श्रीपाल (व्याधि) रोग (वजितः) रहित (जातः) हो गया (इयं) यह (कन्या) कन्या (श्रीजिनेन्द्रोक्तधर्मद्र मलतोपमा) श्री जिनेन्द्र भगवान कथित धर्मरूपी वृक्ष की लता के समान है । यह कन्या--
नवान्यायं करोत्येषा स्थिता वा मेरूचूलिका
यशीलेन पवित्रात्मा सन्मतिर्वा महामुनेः ।।१६६॥ अन्वयार्थ---(एषा) यह कन्या (अन्यायम्) अन्याय (नैव) नहीं (करोति) करने वाली है (वा) अथवा (पवित्रात्मा) निर्मल पात्मा (स्वशीलेन) अपने पातिव्रतधर्म से (मेरुचूलिका ) सुमेरू की चोटी (इव) समान (स्थिता) स्थिर (बा) अथवा (महामुनेः) उत्तम मुनिराज की (सन्मतिः) सम्यक् बुद्धि है ।।१६६।।
मावार्थ हे भूपाल ! आपका तेज-अंश शोल विहीन नहीं हो सकता । कुल, वंश परम्परा का असर सन्तान के जीवन में अवश्य पाता है । पृथ्वी पर आपका शीलाचार अखण्ड ही प्रसारित है । इस महाधर्मज्ञा कन्या द्वारा श्री सिद्धचक्रमहापूजा विधान किया गया था। उससे प्राप्त सातिशय पुण्य द्वारा यह इसका पति श्रीपाल कष्ठव्याधि रहित हो गया। यह कामदेव समान रूप लावण्य का पुञ्ज इसी का पत्ति है। यह कन्या जिनधर्म की ध्वजा है। श्री जिनेश्वर प्रभु द्वारा उपदिष्ट धर्मवृक्ष की लता स्वरूप यह कन्या महाशीलवती है। इसका भीलव्रत सुमेरू की चूलिका समान अचल है। यह पविवात्मा है। निर्मल और निर्दोष बुद्धि है। महामुनि की श्रेष्ठ सम्यक् बुद्धि मति के सहप पावन और विवेक पूर्ण है । यह कभी भी अन्याय, अत्याचार, अनाचार व दुराचार नहीं कर सकती । यह महापतिव्रता शील से सुप्रसिद्ध
तशिम्य पालस्सानन्देन विस्मयान्वितः । तयोस्समीपमायातो राजा सस्नेहमानसः ॥१६७।।