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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ--(तत्) उसे (निशम्य) सुनकर (विस्मयान्वितः) आश्चर्यचकित हुआ (सानन्देन) अानन्द से युत (प्रजापाल :) प्रजापाल (राजा) नृपति (सस्नेह) स्नेह प्रेम से भरा (मानस:) मन वाला (तयोः) पुत्री और जंवाई के (समीपम्).पास (आयातः) आया ।
भावार्थ--अपने साले के मुख से पुत्री के पतिव्रत धर्म की प्रशंसा सुनी। श्री सिद्धचक्र पूजा के माहात्म्य को अवगत किया। जिनधर्म की महिमा को समझा। कर्मसिद्धान्त रहस्य को ज्ञात किया । सुनकर समस्त अनुताप. पश्चात्ताप भूलगया । हर्ष से गद्गद हो गया । प्रेमांकुरों से गात भर गया। पुत्री के प्रति वात्सल्य और उसके पति श्रोषाल के प्रति अनुराग उमई गया। इस आश्चर्यकारी जिनमहिमा से राजा का कोप और क्षोभ विलीन हो गया। प्रजापाल महाराज स्वयं दौडता हुअा इन अद्भ त चमत्कारी दम्पत्ति के पास आया । आश्चर्य और प्रानन्द मिश्रण उसके हृदय में घुमड़ रहा था ।।१६७।।
तमायातं समालोक्य श्रीपालः स्वप्रियान्वितः । अभ्युत्थानादिकं कृत्वा ननाम विनयान्वितः ॥१६८।।
अन्वयार्थ--(तम्) उस अपने ससुर को (आयातम् ) प्राते हुए देख (समालोक्य) देखकर (स्वप्रियान्वित:) अपनी पत्नी मैंना सहित (श्रीपालः) श्रीपाल (अभ्युत्थानादिकम् ) उठकर, खडे होकर आगे बढ़कर पाना यादि (कृत्वा) करके (बिनयान्वित:) विनय से नम्रीभूत होकर (ननाम) नमस्कार किया ।
भावार्य-सुखासीन स्थित श्रीपाल ने राजा भूपाल को प्राते हुए देखा । अपना उपकारी और पिता तुल्य जानकर देखते ही दोनों खडे हो गये। सामने आ आगवानी की, पादप्रक्षालन, आसनप्रदान, आदि योग्य क्रिया कर विनय से दोनों ने नमस्कार किया । ठीक ही सत्पुरुष किसी उपकार को नहीं भूलते । यदि श्रीपाल को मैंनासुन्दरी न दी होती तो उसका कुष्ठ कैसे दूर होता । तथा मैंनासुन्दरी को कुष्ठी पति न मिलता तो उसको दृढ़ जिनधर्म श्रद्धा की परीक्षा कैसे होती ? उसका पतिव्रत धर्म निरव्यापी किस प्रकार होला । योध्वजा कसे फहराती ! अत: दोनों ही ससुर एवं पिता के प्रति कृतज्ञभाव से उपस्थित हुए। उस समय राजा प्रजापाल अपनी लाडली पुत्री से कहते हैं ।।१६८।।
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तवा प्रभुस्सुतां प्राह भो सुते कुलदीपिके । जिनेन्द्रचरणाम्भोज सममन्यन्न कोविदे ॥१६॥
अन्वयार्थ--(तदा) आस्वस्थ बैठजाने पर (प्रभुः) राजा जापाल (प्राह) कहने लगे (भो) हे (कुलदीपिके) कुलदीपक (सुते) बेटी ! (कोबिदे ! ) हे विदुषि ! गुणावते ! जिनेन्द्रचरणाम्भोज) श्री जिनभगवान के चरण कमल (समम् ) ममान (अन्यत्) अन्य कुछ भी (न) नहीं है।