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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
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भावार्थ-पाहुनगति हो जाने पर सब यथा स्थान बैठ गये। तब राजा प्रजापाल अपनी सती, दुलारी पुश्री से कहने लगे, हे पुत्रि, तुम मेरे कुल की दीपक हो अर्थात् तुमसे मेरा कुल उज्वल यशस्वी, प्रकाशित हो गया । तुम विदुषीरत्न हो, सम्यग्ज्ञान शिरोमणि हो। तुमने प्रत्यक्ष दिखला दिया कि संसार में श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणसरोजों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं । अर्थात् जिनचरणारविन्द भक्ति समान अन्य कुछ भी नहीं है । जिनभक्ति में अपार शक्ति है । वही सर्वदुःखहारिणी पाप प्रणाशिनी है ।।१६६।। अब राजा कर्म का प्राधान्य स्वीकार करता है -
सत्यं ते पुण्यकर्मात्र फलितं कल्पवृक्षवत् ।
सिद्धचक्रप्रसादेन, परमानन्ददायकम् ।।१७०।। अन्वयार्थ---हे पुत्रि ! (सत्यम् सचमुच ही (ते) तुम्हारा (त्र) यहाँ, इस अवसर पर (पुण्य कर्म) पुण्योदय (कल्पवृक्षवत । कल्पवृक्ष के समान (फलितम्) फल है वस्तुत: (परमानन्ददायकम्) परम आनाद को देने वाले (सिद्धचक्र प्रसादेन) सिद्धचक्रविधान के प्रसाद से ते पुण्यकर्म ) तुम्हारा पुण्यकर्म (अत्र) यहाँ (फलितः) फलित हुअा। (कल्पवृक्षवत्) कल्पवृक्ष के समान (फलितः) फलित हृया।
भावार्थ हे पुत्रि पुण्यकर्म बलवान है। आज तेरे पुण्यकर्म का ही यह प्रत्यक्ष फल है । तुम्हारा पुण्य कल्पवृक्ष के समान है । आज सिद्ध चक्र विधान के महाप्रसाद से परमानन्द दायी यह अवसर प्राप्त हुआ है । उस समय मैंने कोधान्ध हो जिन धर्म के सिद्धान्त पर शंका की । मिथ्यात्व का उदय क्या नहीं कराता । तू सम्यक्त्व शिरोमरिण । परमागम की जाता है । जिनधर्म के रहस्य को जानने वाली है । तेरे पुण्यकर्म से हम सब सुखी हो गये ।।१७०।।
एवं पुत्रों प्रशस्योच्चैः स्वाकमारोप्य सादरम् । श्रीपालञ्च जगादेवमहो श्रीपालपुण्यभाक् ॥१७॥ त्वमेव भुबने सिद्धचक्रसेवा विधायकः ।
अतो गृहाण सप्ताङ्ग राज्यं मे शर्मदायकम् ॥१७२॥युगलम्।। अन्वयाथ---(एवम ) इस प्रकार (पुत्रीम ) पुत्री की (उच्चैः) खूब (प्रशस्य ) प्रशंसा करके (सादरम् ) ग्रादर से (स्व) अपनी (अङ्कम ) गोद में आरोग्य) विठला कर (च) और (थोपालम् ) श्रीराल को (एवम ) इस प्रकार (जगादः) बोला (पुण्यभाक्) हे पुण्यपात्र ! पुण्यस्वरूप ! (भुबने) संसार में (त्वम् ) तुम (एव) ही (सिद्धचक्रसेवा विधायक:) सिद्धचक्र की सेवा के अधिनायक हो (ग्रतः) इसलिए (में) मेरा (शर्मदायकम) शान्ति सृनदायक (राप्ताङ्ग) सात अङ्ग वाले (राज्यम ) राज्य को (गृहाण ) ग्रहण करो।
भावार्थ- उपर्युक्त प्रकार महाराज महीपाल ने अपनी पुत्री मैंनासुन्दरी की नानाप्रकार प्रशंसा की। तथा प्रेम से उसे अपनी गोद में लिया। हृदय से लगाया । वात्सल्यभाव