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________________ २०६] [ोपाल रिम शोय परिच्छेद से बार-बार उसे स्नेह से निहार प्रसन्न हुश्रा । पुनः अपने जवाई श्री श्रीपाल जी से कहने लगा भो पुण्यशालिन्, आप महान हैं । आप सम्यग्दृष्टि जिनभक्त हैं। श्री सिद्धचक्र विधान के आप ही संसार प्रसिद्ध प्रवर्तक हैं। सिद्धसमूह पूजा के प्राप विधायक हैं। मेरा सम्पन्न, सुखकारी राज्य आप स्वीकार करिये। राज्य के सातों अङ्ग पुर्ण हैं। इस प्रकार समृद्ध राज्य के प्राप अधिकारी बनिये ।।१७१, १७२।। तदाकण्यानुसोऽवादीनिलाभो निर्मलं वचः। राजन् प्रयोजनं नास्ति मम देशादि वस्तुभिः ।।१७३॥ अन्वयार्थ---(तदा) तब, ससुर के प्राग्रह को (आकर्य) सुनकर (अनु) तदनुसार (सः) वह श्रीपाल (निर्लोभः) लोभरहित (निर्मलम् ) बास्तविक, निर्दोष (वन:) वचन (प्रवादीत्) बोला (राजन) हे भूपते ! (देशादि) देश, राज्यादि (वस्तुभिः) वस्तुओं से (मम.) मुझे (प्रयोजनम् ) प्रयोजन (नास्ति) नहीं है। भावार्थ- श्रीपाल ने ससुरजी का आग्रह सुना । जिसके पास सन्तोष है उसे अनायास प्राप्त राज्य सम्पदादि के प्रति तनिक भी अाकर्षण नहीं होता । अत: श्रीपाल ने कहा, पिताजी मुझे राज्यादि किसी भी वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । आपका राज्य प्राप हो संभालिये । मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं हैं ।।१७३।। तुष्टा तेन प्रभुमत्वा तस्य मानसमुन्नत्तम् । श्रीपालं प्रशस्याशु तस्मै प्रोत्या पुनर्ददौ ॥१७४।। देशकोष पुरनाम मत्तमात्तङ्ग सद्रथान् । नाना तुरङ्गमांस्तुङ्गान् वस्तु वास्तु समुच्चयम् ॥१७५।। अन्वयार्थ--(तेन) उस श्रीपाल के उत्तर से (तस्य) उसका (मानसम ) हृदय (समुन्नतम.) बहुत विशाल है, (तुष्टा) वह संतुष्ट है ऐसा(मत्त्वा) ज्ञातकर मानकर (तम ) उस (श्रीपालम ) श्रीपाल की (प्रशस्य) प्रशंसा कर (प्राशु) शोघ्र ही (तस्मै) उसके लिए (प्रोत्या) प्रेम से (पुनः) फिर से (देशकोषपुरग्राम) अनेक देश, खजाने पर नाम आदि, (मत्तमात्तङ्ग) मदभरते गज (सस्थान्) श्रेष्ठ रथ (नानागुङ्गन्) अनेक ऊँचे-ऊँचे विशाल (तुरङ्गान ) घोडों को (तथा) अन्य भी (वस्तु) धन (वास्तु) धाम-महलादि (समुच्चयम ) ममुदाय (ददौ) दिये। भावार्थ-श्रीपाल ने राजा के अनुग्रह को स्वीकार नहीं किया । तव राजा ने समभलिया कि यह महान् पुरुष है । इसका हृदय विशाल है । संतुष्टमन है। लोमविहीन है। इसे किसी का भी प्रलोभन अाकर्षित नहीं कर सकता। ठीक ही है, धीर, वीर, उदार, महामना पुरुषार्थों को परसम्पदा, परमहिला और परधन से क्या प्रयोजन ? वह अपने में स्वयं निर्भर
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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