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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [२०७ और संतुष्ट रहता है । पुनः राजा ने अत्यन्त प्रीति से आग्रह पूर्वक उसे प्रशंसित करते हुए उसके लिए अनेकों राज्य, देश, पुर नगर ग्राम, विशाल उन्नत गज, अश्व, आदि भी प्रदान किये ।। १७४ १७५ ॥ सन्मान्य सरसंयवियैः परमानन्ददायकैः । सुधीः स्वगृहमायातो, विकसन् मुखपङ्कजः ॥ १७६ ॥ प्रन्वयार्थ -- उस राजाने ( परमानन्ददायक : ) परम श्रानन्द को देने वाले ( सरसः ) मधुर (वाक्ये) वाक्यों से ( सम्मान्य) सम्मान कर ( विकसन् ) सिलेहुए ( मुखपङ्कजः ) मुखकमल वाला प्रसन्नमुख ( सुधीः ) वह बुद्धिमान राजा (स्वगृहम) अपने घर ( आगत ) आ गया । भावार्थ -- अनेकों उपहार र देकर राजा ने श्रीपाल की अनेकों मधुर, सरस, प्रिय वचनों से भूरि-भूरि प्रशंसा की । परम आनन्द दायक वाक्यों से पुनः पुनः उसके चारित्र की शीलस्वभाव की महिमा वर्णन की । हर्षोल्लास से उसका मुखपङ्कज विकसित हो उठा वह धीमान् राजा आनन्दतिरेक से भरा अपने घर आया ।।१७६ ।। तदा तत्र जगत्सारो जैनधर्मस्तुशर्मदः । लोकोद्योतकरश्चापि प्रद्योतश्च महानभूत् ।। १७७।। अन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( तत्र ) वहाँ सर्वत्र ( सुशर्मदः) शान्ति सुखदाता (च) और (जगत्मारः ) जगत का सार (च) और ( लोकोद्योतकरः ) संसार को द्योतित करने वाला (महान्) महान् ( प्रद्योतः ) उद्योत करने वाला (जैनधर्मः ) जैनधर्म ( अभूत् ) हुआ । T भावार्थ- - इस अलौकिक प्रभावना और माहात्म्य से जैनधर्म की महिमा सर्वत्र विख्यात हो गई । शान्ति-सुख विधायक जैनधर्म संसार में सारभूत प्रसिद्ध हुआ । सर्वत्र जैनधर्म का प्रकाश, महिमा व्याप्त हो गई। जन-जन के मुख पर सर्वं जगह एक ही चर्चा हो गई । इस प्रकार जनधर्म सर्वव्यापी हो गया। यही नहीं ।। १७७ ॥ श्रीपालस्य तदाख्यातिः प्रचुरासीत् पुराभुवि । वन्दी गायनगीताद्यैः याचकादिजनोत्करैः ॥ १७८ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( तदा ) तब ( सुबि) पृथिवी पर (श्रीपालस्य ) श्रीपालराजा की (परा ) उत्तम (प्रचुरा ) अत्यधिक ( ख्यातिः ) प्रशंसा ( बन्दीगायनगीताद्य :) वन्दोजनों के गीतगानादि द्वारा ( याचकादिजनोत्करे :) याचकजनों द्वारा (ग्रासीत् ) हो गई । भावार्थ - इस प्रकार सारी पृथिवी पर श्रीपाल का यश भी फैल गया । सर्वत्र वन्दीजन उसी का गान गाते थे । बन्दीजन उसी की प्रशंसा करते थे । याचक जन उसी के दान का राग अलापते थे ।। १७८ ॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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