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[ श्रीपाल चरिज्ञ पश्चम परिच्छेद
अन्वयार्थ - (पत्र) इस लोक में ( परस्त्रीरजपरागेण ) पर नारी के राग से उत्पन्न पाप से ( बहवा : ) अनेकों ( नष्टबुद्धयः) मूर्खजन (उच्च) प्रत्यन्त ( विनाशम् ) नाश को ( प्रापुः) प्राप्त हुए (वा) यथा (पावके ) श्रग्निशिखा में ( पतङ्गकाः) पतङ्ग जेल कर भस्म होते हैं ।
भावार्थ -- जिस प्रकार अज्ञानी चक्षुरिन्द्रियविषय लम्पटी पतङ्ग दीपशिला पर गिर गिर कर भस्म हो जाते हैं। उसी प्रकार जडबुद्धि मनुष्य, परनारीरत होकर नष्ट हो जाते हैं । इसलिए यह विचार आपका उचित नहीं है। आगम में इस प्रकार के अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते हैं || १४ || देखिये-
श्रम ते वचनं सदा ।
रावणाः कीचकाद्याश्च तद्दोषेण क्षयं गताः ॥१५॥
श्रन्वयार्थ - ( सदा ) हमेशा ( श्रीमज्जिनागमे ) श्री जिनेन्द्र भगवान के आगम में ( प्रोक्तम् ) कहे हुए ( वचनम ) वचन ( श्रूयते) सुने जाते हैं, (तद्दोषेण) उस परस्त्री सङ्गम के दोष से (रावणः ) रावण (च) और ( कीचकाय: ) कीचक आदि ( क्षयम) नाश को ( गताः) प्राप्त हुए।
भावार्थ -- मित्र कहता है, है भाई सुनो ! श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित आगम में इस परनारी लम्पटता के कटुफल के अनेकों दृष्टान्त भरे हैं। रोज ही कहे जाते हैं और सुने जाते हैं कि त्रिखण्डाधिपति रावण महाबली, कीचक आदि सोतासती और द्रौपदी महासतियों पर श्रासक्त होने से नष्ट हो गये। जीवन, धन, यश और जनसर्वरहित होकर दुर्गति में जा पड़े | अतः प्राप इस दुबुद्धि का त्याग करो। इस महा पाप की पङ्क में फंस कर व्यर्थ जीवन को बरबाद मत करो || १५ || और भी कहते हैं।
अन्येषां का कथायेन नीयते वा पुनर्गजाः । कथं संतिष्ठते तत्र वराको मशको ध्रुवम् ॥१६॥
अन्वयार्थ - (वा) अथवा (पैन) जिस वेग से ( गजाः ) हाथो ( लीयते) ले जाये जांयें (तत्र) वहाँ (अन्येषाम् ) अन्यों की ( कथा ) कहानी (का) क्या ? ( वराक: ) वेचारा ( मशक : ) मच्छर ( धवभ) निश्चय ही ( कथम) किस प्रकार ( संतिष्ठते) स्थिति पा सकता है ?
भावार्थ- नदी में बाढ आने पर, या वेग से जलप्रवाह होने पर बड़े-बड़े विशाल दिग्गज यदि वह जाँय तो अन्य साधारण जीवों की क्या कथा ? कुछ भी नहीं ! फिर भला वहाँ वेचारा अत्यल्पशक्ति मच्छर किस प्रकार ठहर सकता है ? अभिप्राय यह है कि बड़े-बड़े राजा, महाराजा, पदवीधारी, अथवा साधु महात्मा भी यदि विषयासक्त हो गये तो वे भी जड़मूल से नष्ट हो गये । फिर तुम तो मच्छर के समान हो इस परस्त्री संग की दुराशा के भीषणगर्त