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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ - (भुवनोत्तमा) तीनों लोक शिरोमणि (भवति) आप (अत्र ) यहाँ (कस्मात्) किस उद्देश्य से (समायाता) पधारी हैं, (अयम्) यह (मत्कान्तः) मेरा पति (कोशः) कैसा है (च) और (किं) क्या (गोत्रम्) गोत्र है (मे) मुझ (समादिश) सब कहिये ॥१४७।।
भावार्थ- झापीय प्राप्मकार उस पदमयन्दरी ने प्रानन्दाकित होकर अपनी सास का स्वागत किया। जिनधर्मपरायणा, धर्मवत्सला उस बधु ने सर्वप्रथम अपनी सास के स्नान की व्यवस्था की । तदनन्तर योग्य शुद्ध सुस्वादु आहार को व्यवस्था की। पहनने को उत्तम वस्त्र दिये भोजन के बाद पान-सुपारी, इलायची, लवङ्ग आदि प्रदान की। अत्यन्त बिनय से अतिथि सत्कार योग्य सभी त्रियाओं को किया। माँ को सन्तोष उत्पादक तथा सज्जनों को आनन्द देने वाली सकल क्रियाओं के हो जाने पर सुख से वैठौं । पुनः मैंनासुन्दरी ने विनय से प्रश्न किया. हे माते आपने यहाँ पधारने का कष्ट किस कारण से किया ? यह मेरा पतिदेव कैसा है, इनका गौत्र क्या है ? कृपाकर सर्ववृतान्त स्पष्ट कहिये । मैं सब कुछ जानना चाहती हूँ। आप सकल वृतान्त कहे।
सा जगाद सती सोऽत्रैवाङ्गन्देशे शुभाकरे ।
चम्पापुर्यानराधीशस्सिहसेनोमहानभूत् ।।१४८।। अन्वयार्य -(सा) वह श्रीपाल की माँ (सती) शीलवती (जगाद) कहने लगी (अत्रैव) इस भरत क्षेत्र में (शुभाकरे) कल्याण करने वाले (अङ्गदेशे) अङ्गदेश में (चम्पापुर्याम् ) चम्पापुरी में (महान् ) प्रतापी (सिहसेनः) सिंहसेन नाम का (नराधीश:) राजा (अभूत) हुआ।
भावार्थ--मैंनासती के प्रश्नानुसार वह सास उत्तर देने लगी। इस ही भरत क्षेत्र में महान् कल्याणकारी अङ्गदेश है उस देश में विशाल 'चम्पापुरी' नाम की नगरी है । उस नगरी का राजा महानप्रतापी, सुभट सिंहसेन नाम का भूपति था।
तस्याहमनमहिषी स्वनाम्ना कमलावती ।
मत्पुत्रोऽयं सुधीति, श्रीपालः कर्मयोगतः ।।१४६॥ अन्धयार्थ- (तस्य) उस सिंहसेन राजा की (अहम् ) मैं (अग्रमहिषी) पटरानी थी (स्वनाम्ना कमलावती) मेरा नाम कमलाबत्ती है (मत्) मेरा (अयम् ) यह (सुधी:) बुद्धिमान (श्रीपालः) श्रीपाल (पुत्रः) पुत्र (जातः) हुअा (कर्मयोगतः) कर्म के निमित्त से
गते द्विवाषिके चास्य सिंहसेननपोमृतः ।
के के नैव गताः काले भो बाले श्रूयतां वचः ॥१५०॥ अन्वयार्थ-(द्विवार्षिक) दो वर्ष (गते) होने पर (अस्य) इसका पिता (सिंहसेनः)