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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
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सिंहसेन (नृपः ) राजा ( मृतः ) मर गया ( भो ) है ( बाले) पुत्रि ! ( श्रूयतां ) सुनो ( बचः ) वचन (काले ) मृत्युमुख में ( के के) कौन-कौन ( नवगतः ) नहीं गये ?
भावार्थ - कमलावती महादेवी मैंनासुन्दरी से कहती है कि उस सिहसेन राजा की मैं पटरानी थी । यह कर्मयोग से श्रीपाल मेरा पुत्र हुआ । यह महावुद्धिशाली हुआ । मेरा नाम कमलावती है । हे पुत्र ! मेरे वचन सुनो इस पुत्रोत्पत्ति के अनन्तर दो वर्ष बाद ही मेरे पति, इसके ( श्रीपाल के ) पिता श्री सिंहसेन महाराज का स्वर्गवास हो गया। संसार की यही दशा है, काल के गाल में कौन-कौन नहीं गया ? सभी जाते हैं। मैं क्या कहूँ ? || १४६ १५०||
श्रानन्द मन्त्रिणा तत्र राज्येऽयं बालकोऽपि च । संस्थापितोतदा तत्र पितृय्योऽस्याति दुष्टधीः ।। १५१ ।।
श्रन्वयार्थ - ( अयं ) यह ( बालक: ) बालक होने पर (अपि) भी ( तत्र ) वहाँ
( आनन्दमन्त्रिणा ) आनन्दमन्त्री द्वारा ( राज्य ) राजगद्दी पर ( संस्थापितः ) स्थापित कर दिया - राजा बना दिया ( तदा) तव ( तत्र ) वहाँ (अस्य) इसके (अति) अत्यन्त (दुष्ट) दुर्जन (धी:) कुबुद्धि ( पितृव्यः ) चाचा ने
श्रीरादिदमनो नाम विषं दातुं समुद्यतः ।
मन्त्रिणा मे तवाख्यातं तेनाहं त्रस्तमानसा ।।१५२।।
एनं बालकमादाय संप्रयायाति वेगतः ।
वाराणसी पुरों प्राप्ता देशत्यागो हि दुर्जनात् ॥ १५३ ॥
श्रन्वयार्थ – (वीरादिदमनः ) वीरदमन ( नाम) नामवाला (विषं) विष ( दातुम् )
देने के लिए ( समुद्यतः) तैयार हुआ ( तदा ) तब ( मन्त्रिणा ) मन्त्री द्वारा (मे) मुझे (आख्यातम् ) कहा (तेन) उस भय से (अहं) मैं ( त्रस्तमानसा) दुःखित मन हो (वेगतः ) शीघ्र ही ( एवं ) इस ( बालकम् ) बच्चे को ( श्रादाय ) लेकर (संप्रयायाति) सावधानी से निकली (वाराणसीपुरी) बनारसनगरी ( प्राप्ता ) प्राप्त की - आयो (हि) क्योंकि (दुर्जनात) दुर्जनों से (देशत्याग: वरं ) देशत्याग श्रेष्ठ है ।
मावार्थ - - यद्यपि पिता की मृत्यु के समय यह अति बालक था तो भी हमारे प्रधानमन्त्री आनन्द ने इसे ही राज्यसिंहासनारूढ किया। राजा तो यह घोषित हुआ किन्तु राजकाज इसका चाचा 'वीरदमन' देखने लगा । परन्तु उसका अभिप्राय अत्यन्त खोटा था । वह इसे मारकर स्वयं राज्य हड़पना चाहता था । अतः उसने इसे विष देने का षड्यन्त्र रचा । आनन्द मन्त्री ने इस दुरभिप्राय को ज्ञातकर मुझे अवगत कराया। तब मैं भयातुर हो, मन में अति दुःखी हुई और शीघ्र ही अपने प्यारे पुत्र को लेकर बनारस चली गयी। क्योंकि नीति है "दुर्जनों के सहवास से देश त्याग करना ही उत्तम है" । पुरुषार्थं करना विद्वानों का कर्तव्य है, फल भाग्यानुसार प्राप्त होता है । श्रतः -