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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद गृर्व पापोटोनातु ष्नज नीलिमः ।
अयं बालस्तदा तत्र कुष्ठिभिरेतकैः परम् ।।१५४।। अन्वयार्थ--(तदा) तब (तत्र) वहाँ (पूर्वपापोदययेन) पूर्वभव के पाप कर्म के उदय से (आशु) शीघ्र (एतकः) इन (कुष्ठिभिः) कुष्ठियों के साथ (अयम् ) यह (बालः) पुत्र-बालक (कुष्ठरोगेन) कुष्ठ व्याधि से (परम्) अत्यन्त (पीडितः) पीडित हुआ।
भावार्थ --हे पुत्रि ! कर्म की गति बही विचित्र है। शुभाशुभ कर्म जो जैमा करता है उसे बसा ही फल प्राप्त होता है । अपना उपार्जित कर्मफल भोगना ही पड़ता है। अत: वहाँ पाने पर पूर्व पापकर्मोदय से इसे इन सातसौं वीरों के साथ कूष्ठरोग ने घेर लिया। सभी भ दूर गलित कुष्ठ से पीडित हो गये । यही नहीं इसकी दूर्गन्ध से नगरवासी बेचैन हो उठे। प्रजा आकुल-व्याकुल होने लगी । प्रजा का कष्ट ज्ञातकर सर्व इन कुष्ठियों ने नगर त्याग का निर्णय किया ।।१५४।।
विधाय मन्त्रणां नीत्वा कृत्वा च निजनायकम् । प्रत्रानीतं तदा सिद्धचक्र-पूजा प्रभावतः ॥१५५।। त्वत्पुण्येनाऽपि भो वत्से, कामदेवोसमोऽजनि ।
सर्वं भवत्याः पुण्यं संश्रुत्वाहं समागताः ॥१५६।। अन्वयार्थ—(तदा) तब (मन्त्रणाम् ) सलाहकर (विधाय) करके (च) और (निजनायकम्) अपना मालिक बना (कृत्वा ) बनाकर (नीत्वा) लेकर (अत्र) यहाँ (आनीतम्) लाया गया (भो वत्से ! ) हे पुत्री ! (त्वत्पुण्येन) तुम्हारे पुण्य स (सिद्धचत्र पूजा प्रभावतः) सिद्धचक्रपूजा के प्रभाव से (अपि) कुष्ठी भो (कामदेवोसमः) कामदेव के सभान (अजनि) हो गया (भवत्याः ) आपके (सर्वम् ) समस्त (पुण्यम् ) पुण्य को (संश्रुत्वा) सम्यक् प्रकार सुनकर (अहम् ) मैं (समागता) पाई हूं।
भावार्य—उन समस्त कुष्ठियों ने परामर्श कर इस मेरे पुत्र को अपना नायक बनाया और वे ही यहाँ इसे लाये । हे वत्से ! "भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्यान च पौरुषम्" नीति के अनुसार आपके पुण्योदय से और परम पवित्र सिद्धचक्र पूजा विधान के प्रभाव से इसका शरीर कामदेव सदृश दर्शनीष, कान्तिमय हो गया। यह सब तुम्हारा उपाख्यान, पूण्यमाहात्म्य सुनकर पुत्रयात्सल्य से प्रेरित हुयी यहाँ आयी हूँ। इस प्रकार श्रीपाल भूपाल की माता कमलावती ने अपने पुत्र का परिचय कराया और अपने प्राने का कारण बतलाया ।।१५५ १५६।।
समाकर्ण्य तदा सर्व भत्तु राख्यानकं शुभम् ।
निदानं सा समासाद्य तुष्टा मदनसुन्दरी ॥१५७।। प्रन्धयार्थ-(तदा) अपनी सास कमलावती महादेवी से (सर्वम्) सम्पूर्ण (भत्तुं :)