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________________ ५४८ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छे सर्वान् शीलगुणान्युच्च परीषह्जयैस्सह । महासुभट सन्दोहान् विधाय विधि पूर्वकम् ।। १०६ ॥ महासत्त्वगजारूढ स्सद्धर्मातपवारणः । सद्यशश्चामरोपेतो विजयी दोष सञ्चये ॥ १०७ ॥ सम्यक्त्वघातिघा सप्त प्रकृतिः प्रकृतीरिव | प्रास्त्रयेण संयुक्ता मिथ्यात्वादिक संज्ञकाः ॥ १०८॥ विनिर्जित्य महाशूर सत्तमोमुनिनायकः । are funreat मुक्त ेश्च श्रेणिकामिव ॥ १०६ ॥ अन्वयार्थ – (उच्चः ) महा ( परोषहजर्थः ) परोषहों के जय के ( सह ) साथ ( सर्वान् ) सम्पूर्ण ( शीलगुणानि ) शीलगुणों रूपों (महासुभटसन्दोहान् ) महासुभट समूहों को ( विधिपूर्वकम) विधिवत ( विधाय ) धारण कर अर्थात् प्राप्तकर ( महासत्वगजारूढः ) विशिष्ट धैर्य रूपी राज पर सवार हुआ (सद्धमतिपवारणः) उत्तमम्यक् धर्मरूपी खाता लगाये (सद्यशपत्रा मरोपेतः) निष्कलङ्क यशरूप चामरों से युत ( दोषसञ्चये) दोषसमूह को ( विजयो ) विजय करने वाला ( प्रकृती:) स्वभाव से ( इव) ही ( प्रायुस्त्रयेण ) आयु लोन के (संयुक्ता ) महित (मिध्यात्वादिसंज्ञकाः) मिथ्यात्व आदि नाम वाली ( सम्यक्त्वघातिषाः ) सम्यग्दर्शन को चातक ( सप्तप्रकृतिः) सात प्रकृतियों को (विनिर्जित्य ) पूर्णतः जीतकर ( महशूरसत्तमः) महान बोर ( मुनिनायकः ) मुनियों के अधिपति ने (मुक्त) मोक्ष की (श्रेणिकामिव ) नसेनी के समान ( क्षपकश्रेणिमारूढः ) क्षपकश्रेणी पर श्रारोहण किया । भावार्थ -- उन दीरातिबीर उग्रोग्र तपस्वी श्रीपाल महामुनिराज ने बाईसपरीयहों१. क्षुधा २. तृषा, ३. गीत ४. उष्ण ५. डंसमशक ६. नग्न ७. अरति ८. स्त्रीपरीषह ६. चर्या १०. शैया ११. श्रासन १२. आक्रोश, १३. बध, १४. याचना १५. अलाभ ९६. रोग १७. तृणस्पर्श १८. मल १६. सत्कार - पुरस्कार २०. प्रज्ञा २१ अज्ञान और अदर्शन को विजय किया । अर्थात् परीषहरूपी सेना को परास्त कर दिया । फलतः उनके १८००० शील के गुण प्रकाशित प्रकटित होने लगे । उन गुणों से शोभित त्रे अतिवीर सुभट की भांति प्रतीत हो रहे थे । उनके गुणसमूहरूप सुभट विधिवत् समद्ध होने लगे। वे धीर-वीर सत्नगज पर आरूढ हुए । सम्यक् -सत्यधर्मरूपछत्र धारण किया। निर्मल- निर्दोष चामर हुलने लगे, दोष समूह पर विजय हो विजय पताका फहराने लगी । उन्होंने सम्यग्दर्शन को घातक मिथ्यात्व आदि नामवाली सात प्रकृतियों को जडमूल से नष्ट कर दिया । अयत्नसाध्य तीन आयुमों को भी उडा दिया । क्षायिक सम्यग्वष्टि हो अप्रमत्त दशा में जा विराजे । निर्विकल्प दशा प्राप्त कर अपने में अविचल होते ही चारित्र मोहनीय को भो क्षय करने वाली क्षपक श्रेणी पर श्रारोहन किया मानों मुक्तिनगरी में चढ़ने के लिए ही सिढियाँ ही हों । अर्थात् अधः प्रवृत्त परिणामों द्वारा दुर्द्ध र कर्मों की शक्तियां क्षीण होने लगी। ठीक है सूर्योदय होने पर तमोराशि कहाँ रह सकती
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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