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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
चारित्र और सम्यक्त्व सहित श्रावक मध्यम पात्र हैं। व्रत रहित और सम्यक्त्व सहित धावक जघन्य पात्र हैं।
कुपात्र किसे कहते हैं ? उसका समाधान भाव संग्रह में इस प्रकार है--
जो रयणत्तय रहियं मिच्छमय कह्यि धम्म अगलग्गं ।
जह विहु तवइ सुधोरं तहा वि तं कुच्छिचं पत्तम् ।।प्रलोक नं ५३०।।
जो पुरुष रत्नत्रय से रहित हैं और मिथ्यामत में कहे हए धर्म में लीन रहता है ऐसा पुरुष चाहे जितना घोर तपश्चरण करे तथापि वह कुपात्र ही कहलाता है। आगे अपात्र को कहते हैं---
जस्स ण तवो ण चरणं ण गरसत्थि पर पुणो कोई :
तं जाणेह अपत्तं अफलं दाणं कयं तस्स ।।५३१।।
जो न तो तपश्चरण करता है न किसी प्रकार का चारित्र पालता है और न उसमें कोई श्रेष्ठ गुण है ऐसा पुरुष अपात्र कहलाता है । ऐसे अपात्र को दान देना सर्वथा व्यर्थ है ।
(जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र में वर्षा का जल सीप में गिरकर मोती बन जाता है, कदली पत्र पर गिरने से कपूर' बन जाता है। सर्प के मुख में गिरकर बही जल विष बन जाता है। इसी प्रकार पात्र के अनुसार दिया गया हमारा द्रव्य भी भिन्न भिन्न फलों को देता है। एक ही कुएं का पानी गन्ने के पेड़ की जड़ में पहुँच कर मधुर रस रूप परिणत हो जाता है, नीम के पेड़ में पहुँच कर कडुवा हो जाता है। इसी प्रकार पात्र कुपात्र अपात्र को दिया दान भी भिन्न-भिन्न फलों को देने वाला होता है।)
श्री चेलना महारानी निरन्तर पात्र को ही दान देने में निरत थीं। जिसके फलस्वरूप उन्होंने मुक्ति को देने वाले सातिशय पुण्य का बंध किया था तभी प्राचार्य श्री ने चेलना को "पात्र दानेन पूतात्मा" ऐसा श्लोक में कहा है ।।२।।
जिनेन्द्र चरणाम्भोज सेवने भ्रमरी यथा । सर्वतत्वार्य संदोह विज्ञाना वा सरस्वती ।।८३॥ दिव्याभरण सद्वस्त्रमंडिता सासती बभौ ।
नित्यं दानप्रवाहेन कल्पवल्लीव कोमला ॥८४।।
अन्वयार्ग-(यथा भ्रमरी) भ्रमरी के समान (जिनेन्द्र चरणाम्भोज सेवने) जिनेन्द्र प्रभु के चरणकमलों को सेवा में निरत एवं (सर्वतत्वार्थसंदोह विज्ञाना) सम्पूर्ण तत्वार्थ समूह को जानने वाली बह चेलना (सरस्वती वा) मानों सरस्वती ही थी।
(दिव्याभरण सद्वस्त्र मंडिता) दिव्य आभूषण और उत्तम वस्त्रों से अलंकृत ( सा सती) वह साध्वी-शीलवन्ती चेलना (नित्ये दान प्रवाहेण) निरन्तर दान क्रिया के प्रवाह से